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बालकों के सद्गुणी होने या उत्तमगुण संपादन करने का उत्साह नहीं नष्ट होता और सदा उत्तम अभ्यास में लीन रहते हैं ।
पूर्वोक्त बातों के कहने का तात्पर्य यह हुआ— कि मनुष्य सत्समागम से सुधरता है और कुसंग से बिगड़ता है। जैसे - वारिस का जल मधुर या सुगन्धित वस्तुओं के संसर्ग से मधुरता या सुगन्धता को, और मलमूत्र या जहरीली वस्तुओं के संसर्ग से तदनुरूप स्वभाव को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य का जैसा अभ्यास पड़ता है वैसी ही उसको उत्तमता अथवा अधमता प्राप होती है । 'जैसा आहार वैसा उद्गार' इस कहावत के मुताबिक यदि मनुष्य पराये दोषों की ओर ताक-ताक कर निन्दा करता रहेगा तो वह अवश्य दुर्गुणी हुए बिना नहीं रहेगा। क्योंकि – गुण और दोष का अभ्यास संसर्गाधीन है इसीलिये यहाँ पर अवसर प्राप्त कुछ सत्सङ्ग की महिमा दिखायी जाती है।
सत्-गुणवान का, सङ्ग - परिचय ( सहवास) करने का नाम 'सत्सङ्ग' है। अच्छा मनुष्य, उत्तम ग्रन्थ, सुन्दर भाषण, सुयोग्य मण्डली, सुशिक्षित सभासद, उत्तम पाठशाला, सद्विचार और गुणसंपन्न चरित्र, इन सब को सत् पद से लक्षित (प्रकट) किया जा सकता है। उनका सङ्ग याने सोहबत, परिचय, प्रसङ्ग, अभ्यास, मनन, अवलोकन, निवास आदि अनेक प्रकार के सम्बन्ध सत्सङ्ग कहाते हैं। अर्थात् — अनेक तरह से सत्सङ्ग का सेवन किया जा सकता है।
शास्त्रकारों ने जो आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल और उत्तम जाति में जन्म लेना अच्छा बताया है। इसका कारण यही है कि –उत्तम क्षेत्रादि में जन्म होने से आर्यजनों का समागम हमेशा मिलता रहता है, जिससे मनुष्यों का चित्त बाल्यावस्था ही से सद्गुणों की तरफ आकर्षित (खिंचा हुआ) बना रहता है, और निरन्तर सद्गुणों को प्राप्त करने का उत्साह बढ़ा करता है। इसलिये सत्संग की महिमा अवर्णनीय है, संसार में अनेक दुःखों से पीड़ित जीव मात्र के लिये सत्सङ्ग विश्राम स्थान हो इतना ही नहीं किन्तु प्रत्येक वस्तुगत सुख और दुःख का प्रत्यक्ष अनुभव करा कर महोत्तम पदाधिकारी बना देने वाला है । यहाँ पर एक ब्राह्मण का दृष्टान्त अत्यन्त मनन करने लायक होने से लिखा जाता है—
सत्समागम पर दृष्टान्त
श्री गुणानुरागकुलक ६५