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अपुनर्बन्धकादि में प्रथम के दोनों अभ्यास समाचरण करना आवश्यक है। क्योंकि व्यवहारनयाभ्यास के विना निश्चयनयाभ्यास नहीं हो सकता; इसलिये सतताभ्यास और विषयाभ्यास करते करते भावाभ्यास प्राप्त होता है। तीव्रभाव से पाप को नहीं करना उसका नाम 'अपुनर्बन्धक' है। अपुनर्बन्धक में आदि पद से अपुनर्बन्धक की उत्तर अवस्था विशेष को भजने वाला मार्गाभिमुख और मार्गपतित तथा अवितरतसम्यग् दृष्टि आदि भी ग्रहण करना।
जैसा अभ्यास वैसा असरअभ्यस्त वस्तुओं का इतना दृढ़ संस्कार हो जाता है कि वे भवान्तर में भी नहीं भूली जा सकतीं। जो लोग हमेशा सद्गुणों का ही अनुकरण किया करते हैं उनको भवान्तर में विशेष रूप से वे गुण प्रगट होते हैं। इसी प्रकार दुर्गुण का अभ्यास होने से दुर्गुण सद्गुण की अपेक्षा अधिकता से प्रादुर्भूत हुआ करते हैं। इस जन्म में दया दान उदारता विनय आदि सद्गुणों की प्राप्ती का अभ्यास करते समय यदि उसमें कुछ स्वभाव का परिवर्तन हो गया तो भवान्तर में भी सद्गुण प्राप्त होने पर भी कुछ परिवर्तन अवश्य हुए बिना नहीं रहेगा।
__ मनुष्यादि प्राणी बालक पन से अपने माता-पिता आदि के आचरणों को देख, प्रायः उसी तरफ झुक जाया करते हैं। अर्थात् वैसा ही व्यवहार सीख लेते हैं, और उसी के अनुसार प्रवर्तन करने लग जाते हैं, क्योंकि शुरू से उनको वही अभ्यास पड़ जाता है इसी से मनुष्यादि प्राणियों की जीवनयात्रा का मार्ग सर्वथा दूसरों के आचरणों पर निर्भर है।
इसके सिवाय पाश्चात्य विद्वानों ने इसका अनुभव भी किया है कि यदि मनुष्य उत्पन्न होते ही निर्जन वन में रक्खा जावे तो वह बिलकुल मानुषी व्यवहार से विरुद्ध पशुवत् चेष्टा करने वाला बन जाता है। सुनते हैं कि
किसी बालक को उसके उत्पन्न होने के कुछ समय बाद एक भेड़िया उठा ले गया और अपने निवास स्थान (भाठी-गुफा) में जा रक्खा, किन्तु उस बालक को भेड़िया ने खाया नहीं प्रत्युत अपने बच्चों की तरह उसको भी पालन किया। बहुत दिनों के बाद लोगों ने उसे
श्री गुणानुरागकुलक ६३