________________
जंगल में फिरते देखा तब उसे बड़े यत्न से पकड़ कर ग्राम में ले गये तो वह बालक मनुष्यों के समान भाषा को न बोलकर भेड़िया के सदृश घुर घुर शब्द बोलता, और मनुष्यों को देख कर भाग जाता, तथा जीभ से चप-चप कर जल पीता, और उसी तरह खाया करता था। अर्थात् भेड़िया के समान ही उसके सब आचरण दीख पड़ते थे। इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यादि प्राणियों का अभ्यासक्रम दूसरों के आचरणों के अधीन है, अर्थात्–'तुख्मे तासीर सोहबते असर' याने जैसा सहवास मिलता है वैसा ही अभ्यास कर लेता है और तदनुसार उसका स्वभाव भी पड़ जाता है। लिखा है कि अंबस्स य निंबस्स य, दुण्हं पि समागयाइँ मूलाइं। संसग्गेण विणटो अंबो निंबत्तणं पत्तो।।१।।
भावार्थ आम और नीम दोनों वृक्ष की जड़ें शामिल ही उत्पन्न हुई, परन्तु नीम की जड़ के संसर्ग से आम भी अपनी मधुरता के गुण से नष्ट होकर कडुआपन को धारण कर लेता है। अर्थात् उस आम का स्वभाव छूट जाता है, और पस्वरभाव के अधीन हो जाता है।
इसी तरह बालक भी संसर्गानुसार आचरणों को स्वीकार कर लेता है। इसलिये माता-पिता आदि को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिये कि बालक–दुरात्माओं के संसर्ग से असद् व्यवहार का अभ्यासी न होने पावे क्योंकि जहाँ माता-पिता मोह के वश हो बालक को उत्तम शिक्षण में नहीं स्थापित करते वहाँ बालक जन्म से मरण पर्यन्त दुर्गुणी बन जाते हैं और उनका वह जन्म ही नष्ट हो जाता है। इससे बालकों को सुशील और सुशिक्षित लोगों के सहवास में रखना बहुत ही आवश्यक है। बालकों का हृदय कच्चा होता है इससे उनके हृदय में सद्गुण वा दुर्गुण की छाया बहुत ही शीघ्र दृढ़ीभूत हो जाती है। इससे माता-पिता और अध्यापकों को भी सद्गुणी होने की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि बालकों का विशेष परिचय इन्हीं लोगों के साथ रहता है। इससे वे इनकी देखा-देखी ही अपनी भी प्रवृत्ति कर बैठते हैं। इससे पूज्यवर्गों को उचित है कि अपने सहवासी बालकों के समक्ष अपनी कोई ऐसी चेष्टा न करें जिससे उनके हृदय दर्पण पर बुरा प्रतिभास हो, और बालकों को हमेशा सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करते रहें, तथा निन्दा करने की आदत से बचावें। इस प्रकार की व्यवस्था रखने से
६४ श्री गुणानुरागकुलक