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२0, परहितार्थकारी-हीन, दीन, दुःखी, और संसारदावानल से संतप्त प्राणियों का भला करने वाला पुरुष धर्म के योग्य अवश्य होता है, क्योंकि परहित करना यही मनुष्यों का यथार्थ धर्म है, जो लोग अनेक विपत्तियाँ सहकर भी परहित करने में कटिबद्ध रहते हैं, उन्हीं का जीवन इस संसार में सफल गिना जाता है।
इस संसार में कई एक मनुष्य नानाभाँति के भोजन करने में, कई एक सुगन्धित फूलमालाओं में, कई एक शरीर में चोवा चन्दन वगैरह द्रव्य लगाने में, रसिक होते हैं और कई एक गीत (गान) सुनने के अभिलाषी रहते हैं, कई एक द्यूत, विकथा, मृगया, मदिरापान आदि व्यसनों में आसक्त होते हैं, कई एक नृत्यादि देखने के उत्साही रहते हैं, कई एक घोड़ा, रथ, हाथी, सुखपाल आदि पर सवार होने में अपना जीवन सफल समझते हैं, परन्तु वे धन्यवाद देने योग्य नहीं है, धन्यवाद के योग्य तो वे ही सत्पुरुष हैं, जो निरन्तर पर हित करने में लगे रहते हैं। परहित करने वाला पुरुष दूसरों का हित करता हुआ वास्तव में अपना ही हित करता है, क्योंकि जब वह दूसरों का भला करेगा, और दूसरे जीवों के दुःख को छुड़ाकर सुखी करेगा, तब वे जीव उसको हार्दिक शुभाशीर्वाद देंगे, जिससे उसका भी भला होगा। पर हितार्थकारी मनुष्य महासत्त्ववाला होता है, इससे उसमें परोपकार में तत्परता, विनीतता, सत्य मन की तुच्छता का अभाव, प्रतिदिन विद्या का विनोद और दीनता का अभाव इत्यादि गुण स्वभाविक होते हैं।
जिस मनुष्य ने यथाशक्य भी दीनों का उद्धार नहीं किया, स्वधर्मी भाइयों को सहायता नहीं दी, और जिनेन्द्र भगवान् का स्मरण सच्चे दिल से नहीं किया। उनका जन्म व्यर्थ ही है। अतएव संसार में मनुष्य जन्म पाकर जहाँ तक बन सके सबका हित करने में उद्यत रहना चाहिये, जिससे अपनी आत्मा का उद्धार और जीवन की सफलता हो।
29, लब्धलक्ष ज्ञानावरणीय कर्म के कम होने से गहन से गहन शास्त्रीय विषयों और नीति वाक्यों को शीघ्र जान लेना अर्थात्-प्रतिजन्म में किये हुए अभ्यास की तरह, हर एक बात को समझ लेना 'लब्धलक्ष' कहलाता है। लब्धलक्षगुण सम्पन्न मनुष्य को हर एक बात समझाने में परिश्रम नहीं उठाना पड़ता, और थोड़े परिश्रम में बहुत समझाया जा सकता है, इसलिये इस गुणवाला
श्री गुणानुरागकुलक ५६