________________
दयालुस्वभाव ही धरम की योग्यता को बढ़ा सकता है। जिस प्रकार शस्त्ररहित सुभट, विचारहीन मन्त्री, नायकरहित सेना, कला शून्य पुरुष, ब्रह्मचर्यरहित व्रती, विद्याहीन विप्र, गन्धहीन पुष्प, पतितदन्त मुख और पातिव्रत्यधर्मरहिता स्त्री, शोभा को प्राप्त नहीं होते हैं, उसी प्रकार दयालुस्वभाव के विना शुद्ध धर्म की भी शोभा नहीं हो सकती।
११, मध्यस्थसौम्यदृष्टि - पक्षपात और रागद्वेष रहित दृष्टि रखना अर्थात् — सब मतों में से 'कनकपरीक्षानिपुणपुरुषवत्' सवस्तु को ग्रहण करना, किन्तु किसी के साथ राग द्वेष नहीं रखना। इस गुणवाला मनुष्य सौम्यता से ज्ञानादि सद्गुणों को प्राप्त और गुणों के प्रतिपक्षभूत दोषों को त्याग कर सकता है, अतएव मध्यस्थ स्वभावी और सौम्यदृष्टि पुरुष ही धर्म के योग्य है ।
१२, गुणानुरागी - गुणिजनों के गुण पर हार्दिक प्रेम रखना और गुणवान – साधु-साध्वी, श्रावक, श्राविका, और सन्मार्गानुसारी पुरुषों का बहुमान करना, यहाँ तक कि अपना अपकारी भी क्यों न हो, किन्तु उसके ऊपर भी द्वेषबुद्धि नहीं लाना, इसलिये गुणानुरागी हुए बिना पुरुष धर्म के योग्य नहीं हो सकता है।
१३, सत्कथक - वैराग्यभाव को उत्पन्न करने वाली तीर्थंकर, गणधर, महर्षि और उत्तमशील सम्पन्न सतियों आदि की कथा कहने वाला पुरुष धर्म करने के योग्य होता है। क्योंकि धार्मिक कथानुयोग के ग्रन्थ और सत्पुरुषों के जीवन चरित्र वाँचने से उत्तमता, सहनशीलता आदि सद्गुणों की प्राप्ती होती है, इसीलिये विकथाओं का त्याग करने वाला पुरुष भी धर्म के योग्य हो सकता है। अतएव सत्कथी पुरुष जिनसे कर्म का बंधन होता हो, ऐसी श्रृंगार की कथाओं से बिलकुल अलग रहता है, इससे उसको कर्मबन्धन नहीं होता है।
१४, सुपक्षयुक्त - जिसका कुटुम्ब परिवार, और मित्रवर्ग सदाचारी, गुणानुरागी, सुशील और धर्मपरायण तथा सत्संगी हो, वह सुपक्षयुक्तगुणवाला पुरुष कहा जाता है। सुपक्षवाला पुरुष
५६ श्री गुणानुरागकुलक