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रहनी कहनी समान होती है वही पुरुष अनेक गुणों का पात्र बनता है। जो लोग कपटपूर्वक हर एक धर्म क्रिया में प्रवृत्त होते हैं वे धर्म के वास्तविक फल को नहीं प्राप्त कर सकते, क्योंकि कपट क्रिया धर्म
हा कारक है अतएव कपटरहित मनुष्य ही धर्म के योग्य है ।
रखना,
८, सुदाक्षिण्य - दूसरों को तिरस्कार करने का स्वभाव नहीं किन्तु परोपकार - परायण ही रहना। जो काम इसलोक और परलोक में हितकारक हों उसमें प्रवृत्ति रखना तथा किसी मनुष्य की प्रार्थना का भंग नहीं करना । क्योंकि दाक्षिण्य गुणसंपन्न पुरुष अपने सदुपदेशों द्वारा सबका भला चाहता रहता है, किन्तु किसी को दुःख में डालने की योजना नहीं करता, इससे वह धर्म के योग्य हो सकता है।
६, लज्जालुता - देशाचार, कुलाचार और धर्म से विरुद्ध कार्य में प्रवृत्त न होने वाले को लज्जालु कहते हैं अर्थात् - मरणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी स्वयं की हुई प्रतिज्ञा का भंग नहीं करना । लज्जावान् मनुष्य हजारों विपत्तियाँ होने पर भी अकार्य में प्रवृत्त नहीं होता इससे वह धर्म के योग्य हो सकता है।
१०, दयालुता – सब जीवों के ऊपर करुणाभाव रखना, और जो हीन दीन दुःखी जीव हैं, उनके दुःख हटाने का प्रतीकार करना। क्योंकि दयालुस्वभाव वाला ही मनुष्य धर्म के योग्य है सर्वज्ञ भगवन्तों ने अहिंसा धर्म को सब से उत्तम बताया है। जैसे पर्वतों में मेरु, देवताओं में इन्द्र, मनुष्यों में चक्रवर्ती, ज्योतिष्कों में चन्द्र, वृक्षों में कल्पवृक्ष, ग्रहों में सूर्य, जलाशयों में सिन्धु, और देवेन्द्रों में जिनराज उत्तम हैं उसी प्रकार समस्त व्रतों में श्रेष्ठ पदवी को अहिंसा ही प्राप्त करती है अर्थात् अहिंसा ही सबसे उत्तम है। क्योंकि जिस धर्म में दया नहीं वह धर्म ही नहीं है, दयालु पुरुष ही सर्वत्र समदृष्टि होने से आदेय वचन, पूजनीय, कीर्तिवान परमयोगी और परोपकारी आदि शब्दों से श्लाघाऽऽस्पद होता है, और महात्मा गिना जाता है। क्योंकि दयालु मनुष्य के पास धर्मेच्छु लोग निर्भय होकर धर्म प्राप्त करते हैं; जब कि शान्ति में लीन योगिराजों को इतर जीव देखते हैं तब वे भी जन्म-जात वैरभाव को जलाञ्जलि दे देते हैं, इसलिये श्री गुणानुरागकुलक
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