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भवाभिनन्दी का काम है। कहा भी है कि'क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शउः। अज्ञोभवाभिनन्दीस्या - निष्फलारम्भसङ्गतः।।१।।' ____ भावार्थ जो मनुष्य क्षुद्र निन्दाखोर हो, लोभान्ध हो, दरिद्र (धर्मोत्साह रहित) हो, मत्सरी हो, भयवान् हो, मायावी हो, और अज्ञ (ज्ञानादि गुण से रहित) हो, और विफलारम्भ कार्य करने वाला हो ये सब भवाभिनन्दी पुरुषों के लक्षण हैं।
__ भवाभिनन्दियों के अन्तःकरण में वैराग्य की वासना बिलकुल नहीं होती, इससे वे स्वार्थ और कपटलीला में विशेष निमग्न होकर मात्सर्य दुर्गुण के सेवन में ही सदा आनन्द मानते हैं। यद्यपि कोई बाह्यवृत्ति से नीति कुशलता का मोल बताता है परन्तु वह गुप्तपने अनीति का ही सेवन करता रहता है क्योंकि इसकी मनोवृत्ति दुष्ट और स्वानिष्ठ बनी रहती है, इससे वह यथार्थ नीतियुक्त नहीं बन सकता, न कोई कार्य में विजय पा सकता है।
* मात्सर्यपरित्याग अत एव प्रत्येक मनुष्य को इस महादुर्गुण को सर्वथा छोड़ कर गुणवानों के गुणों को देख वा सुन कर आनन्दित रहना चाहिये। सब से पहले हमारे धर्मगुरुवर्यों को उचित है कि वे अपने पूर्वाचार्यों की निष्पक्षपात बुद्धि, उनकी उत्तम शिक्षा और सहनशीलता का परिपूर्णरूप से अनुकरण कर, श्रोतावर्ग में जो भवाभिनन्दीपन के दोष हैं उनको अपने नीतिमय उपदेशों और व्याख्यानों के द्वारा मूल से नष्ट करें, क्योंकि धर्म की उन्नति का आधार, उस धर्म को पालन करने वाली प्रजा के नीतिसुधार पर निर्भर है, और उस नीति का सुधार होना धर्मगुरुओं के आधीन है। यद्यपि बोर्डिंगहाउस, स्कूल, पाठशाला आदि में भी नीति का शिक्षण मिल सकता है परन्तु गुरुकुल में जितना नीति शिक्षण का यथार्थ प्रभाव पड़ता है उतना दूसरी जगह का नहीं। यह नियम सिद्ध बात है कि जहाँ ईर्षा आदि दोषों का अभाव है और जहाँ स्वार्थ रहित हो परहित परायणता है; वहाँ पर अनीति मार्ग का अनुकरण स्वप्न में भी नहीं किया जायगा, और न वैसा शिक्षण ही दिया जायगा।
४४ श्री गुणानुरागकुलक