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समझकर हृदयदग्ध बना रहता है और इसी आवेश में वह अपने अमूल्य मनुष्य जीवन को व्यर्थ खो बैठता है किन्तु उससे उत्तम गुण प्राप्त नहीं कर सकता।
इसलिए जो अपार संसार के दुःख से छूटना हो, तथा सर्वत्र अपना या धर्म का अभ्युदय करना हो और अनुपमसुख की चाहना हो तो गुणवानों के गुणों पर ईर्ष्या लाना या दोषाऽऽरोप देना बिलकुल छोड़ दो, और मैत्री धारण कर सर्वत्र शान्ति प्रचार का उद्योग करो क्योंकि गुणवानों के दोष निकालने से या उनका बुरा चाहने से बहुत खराबी होती है।
महानुभावो! इस बात पर ध्यान दो और शान्त दृष्टि से विचारो कि—पुण्यशाली श्रीपालराजा के उत्तम गुणों और संपत्ति को सहन न करने से धवल सेठ अपनी कीर्ति, धनश्री और योग्यता से भ्रष्ट हो नरक का भागी बना और भाग्यशाली धन्नाजी के तीन भाई इसी मात्सर्य दोष के वश घर बार कुटुम्ब से विमुख हो अनेक दुःखों के पात्र बने हैं, कुटुम्ब और राज्य के सहित कैरबों का नाश भी इसी के प्रभाव से हुआ। बहुत क्या कहा जाय जहाँ मत्सर का सेवन किया जाता है वहाँ लेशमात्र सुख नहीं है। अत एव मात्सर्य भाव का त्याग कर सब के साथ भ्रातृभाव धारण करो, और प्रत्येक प्राणियों के अवगुणों पर दृष्टि न डाल कर गुणानुरागी व गुणग्राही बनो, तभी महत्व बढ़ेगा और सब प्रकार से उन्नति भी होगी।
मत्सरी–मनुष्य पलालपुंज से भी तुच्छ है
__ *जो जंपइ परदोसे, गुणसयभरिओ वि मच्छरभरेणं।
सो विउसाणमसारो, पलालपुंजु व्व पडिभाइ।।८|| शब्दार्थ-(गुणसयभरिओ) सैकड़ों गुणों से युक्त होने पर (वि) भी (जो) जो कोई मनुष्य (मच्छरभरेणं) अधिक मत्सरभाव से (परदोसे) *यो जल्पतिपरदोषान्, गुणशतमृतोऽपि मत्सरभरेण ।
स विदुषामशारः पलालपुजवत्प्रतिभाति ।।८।। ४८ श्री गुणानुरागकुलक