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पश्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ।।१।।
भावार्थ-अहिंसा अर्थात् किसी जीव को मारना नहीं १, सत्य-याने प्राणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी झूठ नहीं बोलना २, अस्तेय-सर्वथा चोरी नहीं करना ३, त्याग-परिग्रह (मूी) का नियम करना ४, और मैथुनवर्जन-ब्रह्मचर्य-व्रत पालन करना ५, ये पांच पवित्र-निर्मल महाव्रत सब धर्मावलम्बियों के मानने योग्य हैं।
अर्थात्-जैन लोगों के धर्मशास्त्र में ये पांच धर्म ‘महाव्रत' नाम से प्रख्यात हैं। तथा सांख्यमत वाले इनको 'यम' कहते हैं, और अक्रोध, गुरु सेवा, पवित्रता, अल्पभोजन तथा अप्रमाद, इनको 'नियम' कहते हैं। पाशुपत मतावलम्बी इन दशों को 'धर्म' कहते हैं।
और भागवत लोग पांच यम को 'व्रत' तथा नियमों को 'उपव्रत' मानते हैं। बौद्धमत वाले पूर्वोक्त दश को 'कुशल-धर्म' कहते हैं, और नैयायिक तथा वैदिक वगैरह 'ब्रह्म' मानते हैं। इसी से कहा जाता है कि संन्यासी, स्नातक, नीलपट, वेदान्ती, मीमांसक, साङ्मयवेत्ता, बौद्ध, शाक्त, शैव, पाशुपत, कालामुखी, जङ्गम, कापालिक, शाम्भव, भागवत, नग्नवत, जटिल आदि आधुनिक और प्राचीन सब मतावलम्बियों ने पवित्र पांच महा धर्मों को यम, नियम, व्रत, उपव्रत, महाव्रतादि नाम से मान दिया हैं। किन्तु कोई दर्शनकार इनका खंडन नहीं करता; अत एव ये पवित्र धर्म सर्वमान्य हैं।
ऐसी अनेक निर्विवाद बातों का वादानुवाद चला कर नीतिपूर्वक सत्य को स्वीकार करना और दूसरों को सत्य-पक्ष समझाकर सद्धर्म में स्थापित करना यही उत्तम वाद 'धर्मवाद' है। धर्मवाद करते समय पक्षापक्षी (ममत्व) को तो बिलकुल छोड़ देना ही चाहिये, क्योंकि ममत्व को छोड़े बिना धार्मिक निवेड़ा हो ही नहीं सकता है।
धर्मवाद में पक्षपात को सर्वथा छोड़ कर सत्य बात पर कटिबद्ध रहना चाहिये और सत्यता की तरफ ही अपने मनको आकर्षित रखना चाहिये। यद्यपि यह नियम है कि सत्यासत्य का निर्णय हुए विना अपनी पकड़ी बात नहीं छूटती, तथापि प्रतिपक्षी की ओर अनादरता जाहिर करना उचित नहीं हैं। क्योंकि धर्मवाद में
३४ श्री गुणानुरागकुलक