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संगृहीत कर लीं, और दर्शनों की युक्ति प्रयुक्ति समऊ कर सर्वमान्य भी बन गये, बहुत क्या कहें सार्वभौम पदाधिरूढ़ भी हो गये, परन्तु जो सब सुखों का कुल भवन एक गुणानुराग नहीं सीखा तो वे सब व्यर्थ हैं, क्योंकि ये सब योग्यताएँ गुणानुराग से ही शोभित होती हैं। अगर विद्या पढ़ने पर भी दूसरों के दोष निकालने की खराब आदत न मिटी तो वह विद्या किस काम की? यदि तपस्या करने पर भी शान्तिभाव न आया तो वह तपस्या किस काम की ? और दान देने से आत्मा में आनन्द न हुआ तो वह दान भी किस काम का ? अर्थात् सब कामों की सिद्धि गुणानुराग के पीछे होती है, इसलिये एक गुणानुराग महागुण को ग्रहण करने का ही विशेष प्रयत्न रखना चाहिये। क्योंकि—गुणानुराग पूर्वक स्वल्प-शिक्षण भी विशेष फलदायक होता है। लिखा भी है किथोवं पि अणुड्डाणं, आणपहाणं हणेइ पावभरे। लहुओ रविकरपसरों, दहदिसितिमिरं पणासेई।।१।। ____ भावार्थ आज्ञा प्रधान थोड़ा सा भी अनुष्ठान अनेक पापसमूहों का नाश करता है; जैसे—छोटा भी सूर्यकिरणों का जत्था (समूह) दश-दिशाओं में व्याप्त अन्धकार का विनाश करता है।
शास्त्रकारों के मत से धर्म का अभ्युदय, आत्मोन्नति, शासनप्रभावना आदि कार्यों में सफलता जिनाज्ञा के बिना नहीं हो सकती। जिनाज्ञा एक अमूल्य रत्न है, अतएव आज्ञा की आराधना से ही सब कार्य सिद्ध होते हैं और उसी के प्रभाव से सब जगह विजय प्राप्त होती है। यहाँ पर स्वाभाविक प्रश्न उठ सकता है कि जिनेन्द्र भगवान् की सर्वमान्य आज्ञा क्या है ? इसका उत्तर यह है किकिं बहुणा इह जह जह, रागद्दोसा लहू विलिज्जंति। तह तह पवट्टियव्वं, एसा आणा जिणिंदाणं।।२।।
भावार्थ आचार्य महाराज आदेश करते हैं कि हे शिष्य ! बहुत कहने से क्या लाभ है ? इस संसार में जिस जिस रीति से राग और द्वेष लघु (न्यून) होकर विलीन हों, वैसी वैसी प्रवृत्ती करनी चाहिये, ऐसी जिनेन्द्र भगवान की हितकर आज्ञा है। अर्थात्-जिस प्रवृत्ति या उपाय से रोग द्वेष की परिणति कम पड़े उसी में दत्तचित्त
श्री गुणानुरागकुलक ३७