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वाला है?, किन्तु (इक्वं) एक (सुक्खाण) सब सुखों का (कुलभवणं) उत्तम गृह (गुणाणुरायं) गुणानुराग–महागुण को (सिक्खह) सीखो।।४।।
भावार्थ-पढ़ने से, अनेक प्रकार की तपस्या करने से, और दान देने से; फ़जूल खोटी होना है, अर्थात् इनसे कुछ भी फ़ायदा नहीं हो सकता ? इसलिये केवल एक गुणानुराग महागुण का ही अभ्यास करना चाहिये जो अनेक उत्तम गुणों का कुलगृह है।।४।।
विवेचन हर एक गुण को प्राप्त करने के लिये प्रथम मनःशुद्धि की आवश्यकता है। क्योंकि मनःशुद्धि हुए बिना कोई भी अभ्यास फलीभूत नहीं होता, और न आत्मा निर्मल होती है। अहार, मद, मात्सर्य आदि दोषों को हटा देने से मन की शुद्धि होती है और मनः शुद्धि होने से यह आत्मा नम्रस्वभावी बनकर गुणानुरागी बनता है। जिसका हृदय अहंकार आदि दोषों से रहित नहीं है। तथा वैर-विरोधों से दूषित बना रहता है उसको पढ़ना, तपस्या करना, दान देना आदि क्रियाएँ यथार्थ फलदायिका नहीं हो सकती। कहा भी है कि
मन्त्र जपै अरु तन्त्र करै, पुनि तीरथ वर्त रहै भरमाए; ग्रन्थ पढ़ सब पन्थ चढ़े, बहु रूप धरै नित वेष वताए। योग करै अरु ध्यान धरै, चहे मौन रहै पुनि स्वास चढ़ाए; शुद्धानन्द एको न सधै जवलों
चित चंचल हाथ न लाए।। इसलिये जब तक अहंकार, परपरिवाद, वैर, कलह, और मात्सर्य आदि दोषों से मन को रोक कर परगुणानुरागी न बनाया जायगा तब तक पठन पाठनादि से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता।
संसार में मुख्यतया जितनी विद्याएँ या कलाएँ उपलब्ध हैं उनको पढ़ लिया, और शास्त्रावगाहन करने में सुरगुरु को भी चकित कर दिया, तथा वाद विवाद करके अनेक जयपताकाएँ भी
३६ श्री गुणानुरागकुलक