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रहना चाहिये। क्योंकि-'राग द्वेष दो बीज से, कर्म बन्ध की व्याध' अर्थात्-राग और द्वेष इन दोनों बीज से कर्म बंधरूप व्याधि होती है
और नाना प्रकार के वैर विरोध बढ़ते हैं। इससे जिनेश्वरों ने सबसे पहले राग द्वेष को कम करने की आज्ञा दी है, किन्तु गुणानुराग विना, राग द्वेष कम नहीं होते और राग द्वेष के कम हुए विना आत्मा में किसी गुण का प्रभाव नहीं पड़ सकता।
कहने का तात्पर्य यह है कि पढ़ना, तप करना, दान देना, क्रियाकाण्ड साँचवना इत्यादि बातें तो सहज हैं, परन्तु दूसरों के गुणों पर प्रमुदित हो उनका अनुमोदन करना बहुत ही कठिन बातहै। इसमें कारण यह है कि दूसरों के गुणों पर अनुरागी होना अभिमान दशा को समझ छोड़े विना नहीं बन सकता, किन्तु अभिमान को छोड़ना अत्यन्त दुष्कर है। इससे गुणानुराग का धारण करना अति दुर्लभ माना जाता है, क्योंकि-गुणानुराग की सुगन्धि उसी जगह आ सकती है जहाँ अहंकार की दुन्धि नहीं आती।
___'बहुत पढ़ने, तपस्या करने और दान देने से क्या होने वाला है ? ऐसा जो ग्रन्थकार ने उपदेश किया है उसका उद्देश यह नहीं है कि—बिलकुल पढ़ना ही नहीं या तपस्या आदि करना नहीं, किन्तु वह गुणानुराग पूर्वक ही पठन पाठनादि करना चाहिये, क्योंकि-गुणानुराग से ही सब क्रियाएँ सफल होती हैं। इसलिये प्रथम अन्य क्रियाओं का अभ्यास न कर, एक गुणानुराग को ही सीखना चाहिये।
इसी विषय को ग्रन्थकार फिर दृढ़ करते हैं
*जइ वि चरसि तवविउलं, पढसि सुयं करिसि विविहकट्ठाई।
न धरिसि गुणाणुरायं, परेसु ता निप्फलं सयलं। |५|| शब्दार्थ (जइवि) यद्यपि तूं (तवविउल) बहुत तपस्या (चरसि) करता है, तथा (सुयं) श्रुत को (पढ़सि) पढ़ता है और (विविहकठ्ठाइं) * यद्यपि चरसि तपोविपुलं, पठसि श्रुतं करोषि विवधकष्टानि।
न धारयसि गुणानुरागं, परेषु ततो निष्फलं सकलम्।।५।। ३८ श्री गुणानुरागकुलक