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महानुभावो! परस्पर के कुसम्प बीजों को जलाञ्जली देकर जैनधर्म की उन्नति करने में परस्पर ऐक्यता रक्खो और परापवाद आदि दुर्गुणों को छोड़ो जिससे फिर जैनधर्म और जैन जाति का प्रबल अभ्युदय होवे क्योंकि ऐक्यता ही सम्पूर्ण उन्नति मार्ग में प्रवेश कराने वाला अमूल्य रत्न है।
इस प्रकार इन चारों दुर्गुणों को दुःखदायी समझकर समूल परित्याग करने से हृदयक्षेत्र शुद्ध होता है और उसमें प्रत्येक सद्गुण उत्पन्न होने की योग्यता होती है। वैर आदि दुर्गुणों का अभाव होते ही शान्ति आदि सद्गुण बढ़ने लगते हैं। अर्थात्-सब संसार में शान्ति फैलाने वाली और कुसंप को समूल नष्ट करने वाली मैत्री १, प्रमोद २, कारुण्य ३, और माध्यस्थ ४ ये चार महोत्तम भावनाएँ पैदा होती हैं। जिनका स्वरूप योगशास्त्र के चौथे प्रकाश में इस प्रकार कहा है कि
ॐ मैत्री भावना मा कार्षीत्कोऽपि पापानि, मा च भूत्कोवपि दुःखितः। मुच्यतां जगदप्येषा, मतिमैत्री निगद्यते। १२८/
भावार्थ समस्त प्राणियों में कोई भी पापों को न करे, और न कोई प्राणी दुःखी रहे तथा समस्त संसार, कर्मों के उपभोग से मुक्त हो जायें; इस प्रकार की बुद्धि का नाम 'मैत्री भावना' है।
विवेचन—जो मनुष्य ऐसा विचार करता है कि कोई प्राणी पाप न करे, अर्थात् पाप करने से कर्म बन्ध होता है जिसका परिणाम अनिष्टगति की प्राप्ति है, वह मैत्री भावना रखने वाला कहा जाता है, या कोई दुःखी न हो, जिसकी हृदय में ऐसी भावना है वह पुरुष परम दयालु होने से स्वयं सुखी रहता है और दूसरों को भी सुख पहुँचाने की चेष्टा करता है, जिसका परिणाम उत्तम गति है। तथा 'जगत् के सभी जीव मुक्त हो जावें' जिसकी ऐसी भावना है, वह परम कृपालु स्वयं मुक्त होने वाला और दूसरे लोगों को सदुपदेश देकर मुक्त करने वाला होता है, क्योंकि जगत् का कल्याण चाहने वाला पुरुष असद् मार्ग से कोसों दूर रहता है और अपने समागम में आये हुए लोगों को गुणी बनाता है। २४ श्री गुणानुरागकुलक