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कर अपने उपदेशों से असद् मार्ग में पड़े हुए प्राणियों को निकाल कर सद्धर्ममार्ग में स्थापित करते हैं अथवा हमेशा निस्वार्थ वृत्ति से दोष रहित आप्तभाषित उत्तम धर्म की प्ररूपणा करते हैं; वह सब आचरण लोकोपकारार्थ है। इससे उत्तमता के और अनुपम सुख के दायक ये ही सद्गुण हैं। इसी का नाम असली गुणानुराग है, अतएव अकृत्रिम गुणानुरागी सत्पुरुष सब में गुण ही देखते हैं परन्तु उनकी दृष्टि दोषों पर नहीं पड़ती।
गुणानुरागी महानुभावों का यह स्वभाव होता है कि अपना उत्कट शत्रु या निन्दक अथवा कोई अत्यन्त घिनावनी वस्तु हो तो भी वह उनके अवगुण के तरफ नहीं देखेगा, परन्तु उनमें जो गुण होंगे उन्हीं को देखकर आनन्दित रहेगा। शास्त्रकारों ने गुणानुराग पर एक दृष्टान्त बहुत ही मनन करने लायक लिखा है कि
सुराष्ट्र देश में सुवर्ण और मणिमय मन्दिर तथा प्राकार से शोभित धनद (कुबेर) की बनाई हुई 'द्वारिका' नाम की नगरी थी। उसमें दक्षिणभरतार्द्धपति, यादवकुलचन्द्र श्रीकृष्ण (वासुदेव) राज्य करते थे। वहाँ पर एक समय घातिकर्म-चतुष्टय को नाश करने वाले, मिथ्यातिमिरदवाग्नि–भगवान् 'श्री अरिष्टनेमी स्वामी' श्री रैवतगिरि पर 'नन्दन' नामक उद्यान में देवताओं से रचित समवसरण के विषे देशना देने के लिये विराजमान हुए। तदनन्तर वनपालक से भगवान का आगमन सुनकर प्रसन्न हो, भरतार्द्धपति श्रीकृष्णजी तीर्थङ्कर भगवान को वन्दना करने के लिये चले। उनके साथ समुद्रविजयादि दशदशाह, बलदेवादि पांच महावीर, उग्रसेन वगैरह सोलह हजार राजवर्ग, और एक्कीस हजार वीर योद्धा, शाम्ब प्रभृति साठ हजार दुर्दान्त कुमार, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ राजकुमार, महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवान वर्ग, तथा सेठ साहूकार आदि नगर निवासी लोग भी चले।
इसी समय सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से श्रीकृष्ण का मन (स्वभाव) गुणानुरागी जानकर प्रसन्न हो, सभा में अपने देवताओं से कहने लगा कि हे देवताओ! देखो, देखो ये महानुभाग 'श्रीकृष्ण' सदा दूसरों के अत्यल्पगुण को भी महान् गुण की बुद्धि से देखता है। इस अवसर पर एक देवता ने विचार किया कि बालकों के समान बड़े लोग भी जो जी में आता है, कहा करते हैं इसलिये इस बात की परीक्षा करना चाहिये कि वस्तुतः यह बात कैसी है? ऐसा सोचकर वह देवता श्रीकृष्ण के मार्ग में एक मरा हुआ दुर्गन्धि से पूर्ण खुले दांत
३0 श्री गुणानुरागकुलक