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भावार्थ-सज्जनों के समागम में वाँछा, दूसरों के सद्गुणों पर प्रीति, गुरुवर्य में नम्रता, विद्या में व्यसन, अपनी स्त्री में रति लोकापवाद से भय, अपने स्वामी में भक्ति, आत्मदमन करने में शक्ति, खल (दुर्जन) लोगों के सहवास का त्याग, ये निर्मल आठ गुण जिन पुरुषों में निवास करते हैं उन भाग्यशाली मनुष्यों के लिए नमस्कार है। अर्थात्-इन आठ गुणों से अलङ्कृत मनुष्य नमस्कार और पूजा करने योग्य है। तात्पर्य यह है कि सर्वत्र गुणानुरागी की ही पूजा होती है और उसी का जीवन कृतार्थ (सफल) समझा जाता है।
जन्म, जरा, मृत्यु आदि दुःखों से पीड़ित इस संसार में प्रत्येक मनुष्य स्वप्रशंसा, स्वहित, अथवा लोकोपकारार्थ हर एक गुण को धारण करते हैं अर्थात् हमारी प्रशंसा बढ़ेगी, सब कोई हमें सदाचारी या तपस्वी कहेंगे, संसार में सर्वत्र हमारी कीर्ति फैलेगी, हमारा महत्व व स्वामित्व बढ़ेगा, हमें लोग पूजेंगे तथा वन्दना करेंगे अथवा हमें उत्तम पदवी मिलेगी; इत्यादि अपने स्वार्थ की आशा से बाह्याडम्बर मात्र से शुद्ध आचरण और शास्त्राभ्यासादि करना तथा सब के साथ उचित व्यवहार रखना सो सब स्वप्रशंसा के निमित्त है, इससे परमार्थतः यथार्थ फल प्राप्त नहीं हो सकता। और जो अनादि काल से यह आत्मा दोषों के वशवत्ती हो, गुणधारण किये बिना नाना दुःखों को सहन करता है परन्तु लेश मात्र सुख का अनुभव नहीं कर सकता। इस विचार से आप्तप्रणीत सिद्धान्तों के रहस्यों को स्वक्षयोपशम या गुर्वादिकों की कृपा से समझकर यथाशक्ति सदाचरण को स्वीकार कर दोषों का परित्याग करना; वह स्वहितगुणधारण है। वास्तव में इस विचार से जो गुण आचरण किये जाते हैं; वेही उभय लोक में सुखानुभव करा सकते हैं।
__ जो लोग अनेक कष्ट सहन कर परहित करने के निमित्त सद्गुणों का संग्रह करते हैं, अथवा परोपकार करने की बुद्धि से शास्त्र अभ्यास व कलाभ्यास करते हैं; तथा सब जीवों का उद्धार करने के लिये संयमपालन करते हैं; और गाँव-गाँव पैदल विहार * गृहस्थ की अपेक्षा–स्वदार सन्तोषव्रत में रति, और साधु की
अपेक्षा सुमति रूप तरूणी में रति।
श्री गुणानुरागकुलक २६