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सर्वत्र 'गुणानुराग' ही प्रशंस्य है, इससे इसी को धारण करना चाहिये
_ *ते धना ते पुन्ना, तेसु पणामो हविज्ज मह निच्छं।
जेसिं गुणाणुराओ, अकित्तिमो होइ अणवरयं ।।३।।
शब्दार्थ-(ते) वे पुरुष (धन्ना) धन्यवाद देने योग्य हैं (ते) वेही (पुला) कृतपुण्य हैं (तेसु) उनको (मह) मेरा (निच्चं) निरन्तर (पणामो) नमस्कार (हविज्ज) हो। (जेसिं) जिनके हृदय में (अकित्तिमो) स्वाभाविक (गुणाणुराओ) गुणानुराग (अणवरयं) हमेशा (होइ) होता है—बना रहता है।
भावार्थ-जिन पुरुषों के हृदय में दूसरों के गुणों पर हार्दिक अनुराग बना रहता है, वे पुरुष धन्यवाद देने योग्य हैं, और कृतपुण्य हैं तथा वे ही नमस्कार करने योग्य हैं।
विवेचन—गुणानुरागी महानुभावों की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही थोड़ी है। इसलिये जो दूसरों के गुणों को देख कर उन पर प्रमोद धारण करता है, उसके बराबर दूसरा कोई कृतपुण्य और पवित्रात्मा नहीं है। मत्सरी मनुष्य परगुण ग्रहण करने की सीमा तक नहीं पहुँच सकता, इससे उस मत्सरी के हृदय में गुणों पर अनुराग नहीं उत्पन्न होता। अत एव जिन पुरुषों के हृदय भवन में यथार्थ गुणानुराग बना रहता है, उनकी इन्द्रभवन में भी स्तुति की जाती है और उन (गुणानुरागी) को सब कोई नमस्कार किया करते हैं। महात्मा भर्तृहरि ने लिखा है किवाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्मुरौ नम्रता, विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादान्दयम् । भक्तिः स्वामिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः
खलेष्वेते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः। *ते धन्यास्ते पुण्यास्तेषु प्रणामो भूयान्मम नित्यम्। येषां गुणानुरागोऽकृत्रिमो भवत्यनवरतम्।।३।।
२८ श्री गुणानुरागकुलक