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लोओ परस्स दोसे, हत्थाहत्थिं गुणे य गिणहंतो। अप्पाणमप्पण चिय, कुणइ सदोसं च सगुणं च।।
भावार्थजो मनुष्य दूसरों के दोषों को ग्रहण करता है वह अपनी आत्मा को अपनी ही आत्मा से दोषवाला बनाता है, और जो स्वयं दूसरों के गुण ग्रहण करता है वह अपनी आत्मा को स्वयं सद्गुणी बनाता है। क्योंकि-गुणीजनों के गुणों का पक्षपात करने वाला पुरुष इस भव और परभव में शरदऋतु के चन्द्रकिरणों की तरह अत्युज्वल गुणसमूह का स्वामी बनता है।
* कारुण्य भावना ॐ दीनेष्वार्तेषु भीतेषु, याचमानेषु जीवितम् । प्रतीकारपरा बुद्धिः, कारुण्यमभिधीयते। १३0।
भावार्थ-दीन, पीडित, भयभीत और जीवित की याचना करने वाले मनुष्यादि प्राणियों के दुःखों का प्रतीकार करने की जो बुद्धि हो, उसका नाम 'कारुण्य भावना' है। विवेचन-दुःखी प्राणियों के दुःख हटाने में प्रयत्नशील रहना मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है। जो लोग दया के पात्र हैं, उनके दुःखों को यथाशक्ति मिटाने वाला पुरुष भवान्तर में अनुपम सुखसौभाग्य का भोक्ता होता है, इसलिये दीन-हीन, पीड़ित और भयभीत प्राणियों को देखकर धर्मात्मा पुरुषों को दयाचित्त रहना चाहिये। क्योंकि जिसके हृदर्य में कारुण्यभावना स्थित है, वह पुरुष सबको सन्मार्ग में चलाने पर कटिबद्ध रहता है।
अनेक लोग किसी को शिक्षा देते समय लोगों की निन्दा और अवगुण प्रकट करते हैं, परन्तु ऐसा करने से कोई सद्गुणी नहीं बन सकता। संसार में सर्वगुणी वीतराग भगवान के सिवाय दूसरा कोई प्राणी नहीं हैं, कोई अल्प दोषी है तो कोई विशेष दोषी। इससे प्राणी मात्र के दोषों पर दृष्टि न डाल कर उन्हें शान्ति पूर्वक सुधारने की चेष्टा रखना चाहिये जिससे वे सद्मार्ग में प्रवृत्ति कर सकें। अत एव प्रत्येक समय और अवस्था में कारुण्यभाव रखकर दयापात्र प्राणियों के दुःख मिटाने में प्रयत्न करो जिसका परिणाम उभय लोक में उत्तम हो। कहा भी है किपरपरिभवपरीवादा-दात्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म। नीचैर्गोत्रं प्रतिभव–मनेकभवकोटिदुर्मोचम्। १३१। २६ श्री गुणानुरागकुलक