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वाला काला कुत्ता प्रकट करता हुआ, उसकी दुन्धि से व्याकुल हो सम्पूर्ण सेना कपड़े से नाक तथा मुख को बाँधती हुई इधर, उधर दूर होकर चलने लगी। किन्तु श्रीकृष्ण तो उसी रास्ते से जाते हुए उस कुत्ते को देखकर यों बोले अहो! इस काले कुत्ते के मुख में सफेद दंत पंक्ति ऐसी शोभित हो रही है—जैसे मरकत (पन्ने) की थाली में मोती की माला हो।
इस प्रकार श्रीकृष्ण को गुणानुराग में लवलीन देखकर देवता विचारने लगा कि
'कहवि न दोसं वयंति सप्पुरिसा'.
अर्थात् सत्पुरुष कभी किसी के दोष अपने मुँह से नहीं बोलते किन्तु अपकारी के भी गुण ही ग्रहण करते हैं।
पश्चात् उस देवता ने सौधर्मेन्द्र के वचनों को सत्य जानकर और अपना दिव्य रूप प्रकट कर पर गुण ग्रहण करने वालों में प्रधान श्रीकृष्ण, उसकी बहुत प्रशंसा की और सब उपद्रवों को नाश करने वाली भेरी (दुन्दुभी) दी। फिर श्रीकृष्ण श्री रैवत-गिरि के ऊपर समवसरण में प्राप्त हो भगवान् को वन्दना कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गये। तब भगवान ने दुरित-तिमिरविदारिणी देशना प्रारम्भ की कि हे भव्यो! इस भवरूपी जंगल में सम्यक्त्व (समकित) को किसी न किसी प्रकार से प्राप्त करके उसकी विशुद्धि (शुद्धता) निमित्त दूसरों में विद्यमान गुणों की प्रशंसा करना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार समस्त तत्त्वों के विषय में अरुचि सम्यक्त्व को मूल से नष्ट कर देती है उसी प्रकार दूसरों के सद्गुणों की अनुपवृंहणा अर्थात् प्रशंसा न करना तत्त्व में अतिचार उत्पन्न करने वाली होती है, फिर जीवों में स्थित गुणों की यदि प्रशंसा न की जाय तो अत्यन्त क्लेश से प्राप्त उन गुणों का कौन आदर करे ? इसलिये ज्ञानादि के विषय में जहाँ जितना गुण का लेश देखाई दे उसको सम्यक्त्व का अंग मान कर उतनी प्रशंसा करनी चाहिये, क्योंकि जो मात्सर्य के वश होकर या प्रमाद से किसी मनुष्य के सद्गुणों की प्रशंसा नहीं करता वह 'भवदेवसूरि'१ के समान दुःख को प्राप्त होता है। (१) भवदेवसूरि का वृत्तान्त धर्मरत्न प्रकरण ग्रन्थ में पाठकों को देख
लेना चाहिये।
श्री गुणानुरागकुलक ३१