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ॐ द्वेष ॐ तीसरा दुर्गुण 'द्वेष' है, यह द्वेष सारे सद्गुणों का शत्रुभूत है। यही दुर्गुण आत्मीय-ज्ञानादि महोत्तम गुणों को नष्ट कर देता है। यदि संसार में राग और द्वेष ये दो दुर्गुण नहीं होते तो सर्वत्र शान्ति का ही साम्राज्य बना रहता। क्योंकि-संसार में जितने बखेड़े हैं वे सब रागद्वेष के संयोग से ही हैं। कहा भी है किरागद्वेषौ यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् । रागद्वेषौ तु न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ।।१।।
भावार्थ इस आत्मा में यदि राग और द्वेष ये दो दोष स्थित हैं तो फिर तपस्या करने से क्या लाभ हो सकता है ?। अथवा यदि राग और द्वेष ये दोष नहीं हैं तो तपस्या करने से क्या प्रयोजन है ?
जीव को संसार में परिभ्रमण कराने वाले तथा नाना दुःख देने वाले राग और द्वेष ही हैं, इसलिए इन्हीं को नष्ट करने के निमित्त तमाम धार्मिक क्रिया अनुष्ठान (तपस्या, पठन, पाठनादि) किया जाता है। परन्तु जिनके हृदय से ये दोष अलग नहीं हुए, वे चाहे कितनी ही तपस्या आदि क्रिया करें किन्तु द्वेषाग्नि से वे सब भस्म हो जाती हैं अर्थात्-उनका यथार्थ फल प्राप्त नहीं हो सकता। द्वेषी मनुष्य के साथ कोई प्राणी प्रीति करना नहीं चाहता, और न कोई उसको कुछ सिखाता-पढ़ाता है। अगर किसी तरह वह कुछ सीख भी गया तो द्वेषावेश से सीखा हुआ नष्ट हो जाता है। क्योंकि-द्वेषी मनुष्य सदा अविवेकशील बना रहता है, इससे वह पूज्य पुरुषों का विनय नहीं सांचव सकता; और न उनसे कुछ गुण ही प्राप्त कर सकता है। यदि कोई उपकारी महात्मा उस को कुछ सिखावे भी तो वह सिखाना उसमें ऊषरभूमिवत् निष्फल ही है। कहा भी है किउपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये। पयः पानं भुजङ्गानां, केवलं विषवर्द्धनम्।।२।।
भावार्थ-मूर्खलोगों (द्वेषीमनुष्यों) को जो उपदेश देना है वह केवल कोप बढ़ाने वाला ही है, किन्तु शान्तिकारक नहीं है। जैसे-सों को दूध का पान कराना केवल विष (जहर) बढ़ाने वाला ही होता है।
२० श्री गुणानुरागकुलक