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किसी के साथ वैरभाव नहीं है। क्योंकि सब के साथ आन्तरिक प्रेम रखना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है; अगर किसी के साथ धार्मिक विषय में जो कुछ बोलना सुनना पड़े तो उसके साथ अत्यन्त मधुर वचनों से व्यवहार करना चाहिये, जिससे अपने कहने का असर उस पर जल्दी होवे। बहुत से लोग सत्य और असत्य वात का विचार न कर धार्मिक वैर-विरोध खड़े करते हैं और ममत्व के
आवेश में वशीभूत हो, तड़ें पाड़ कर जाति में कुसंप (भेद) डाल देते हैं। परन्तु वस्तुतः यह सब प्रपञ्च अवनतिकारक और दुर्गतिदायक ही है। ऐसे वैर विरोध खड़े करने से संसार में किसी को लाभ नहीं हो सकता, बल्कि अपनी और दूसरों की हानि ही होती है। हमारे आचार्यवों का तो यही उपदेश है कि-वैर विरोध करना बहुत हानिकारक है, वैर विरोध से ही कौरव और पांडव अपनी राज्य
और कुटुम्ब संपत्ति आदि से विमुख हुए। सैंकड़ों राजा, महाराजा, सेठ, साहकार, वैर विरोध के आवेश में आकर दुर्गति के पात्र बन मनुष्यजीवन को हार गये। वस्तुतः देखा जाय तो वैर बड़ा भारी दुर्गुण होने से समग्र दुःखों को स्थान है। इसलिए वैर विरोध बढ़ाकर सर्वत्र अशान्ति फैलाने के समान कोई भी अधर्म नहीं है, और न इसके तुल्य कोई अधमता है। वैरकारक मनुष्य अनेक जीवों को दुःख देता हुआ स्वयं नाना दुःखों को उपार्जन करता है। इस भव में अनेक दुःखदायी कर्म बाँधता है और पर भव में भी नरक, तिर्यञ्च आदि स्थानों में जाता है फिर वहाँ वैरानुबंधी बध बन्धन आदि कर्मों का अनुभव करता है। अतएव सब दुःखों का मूल कारण वैरभाव है उसको परित्याग कर देना ही बुद्धिमान पुरुषों को उचित है।
ॐ मात्सर्यॐ दूसरा दुर्गुण 'मात्सर्य' है, मत्सरी मनुष्य निरन्तर आकुल व्याकुल बना रहने से क्षण मात्र भी सुखी नहीं रहता; इस कारण सद्-असद् वस्तु का विचार भी नहीं कर सकता है। इससे उसको सद्गुण या सद्गुणों पर अनुराग नहीं होने पाता और वह हमेशा कृश—दुर्बलसा) बन, असंख्य दुःखों का पात्र बना रहता है। इसलिए आत्महितेच्छुओं को इस दुर्गुण का भी त्याग करना उचित है।
श्री गुणानुरागकुलक १६