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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
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है तथा गुण अनेक होने पर भी एक अन्वयी कैसे है यह आगे १५३ से १५६ तक तथा और आगे ४८१ से ४९२ तक स्पष्ट समझाया है।)
देशव्यतिरेक स यथा चैको देश: स भवति नान्यो भवति स चाप्यन्यः ।
सोऽपि न भवति स देशो भवति स देशश्च देशव्यतिरेकः ॥१७॥ अर्थ-वह व्यतिरेक इस प्रकार है कि जो एक देश है। वह वही देश है वह दूसरा देश नहीं है और वह दूसरा देश भी वह पहला देश नहीं है किन्तु वह दूसरा देश वह दूसरा देश ही है। यह देश व्यतिरेक है। ___भावार्थ-यह ध्यान रहे कि यहाँ दो द्रव्यों की बात नहीं है। एक द्रव्य का दूसरे में अभाव देशव्यतिरेक नहीं है। वह तो द्रव्यों का अत्यन्ताभाव है। यहाँ तो एक ही द्रव्य का कथन चल रहा है। यहाँ एक ही द्रव्य के जो बहु प्रदेश हैं वे आपस में व्यतिरेक रूप हैं। जो एक प्रदेश है, वह वही प्रदेश है, वह दूसरा प्रदेश नहीं है। जो दूसरा प्रदेश है, वह दूसरा ही है वह पहला नहीं है। इस प्रकार एक द्रव्य के जितने भी प्रदेश हैं वे परस्पर व्यतिरेक रूप हैं। इन प्रदेशों के व्यतिरेक को"देशव्यतिरेक"कहते हैं। यदि आप यहाँ एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अभाव को व्यतिरेक अर्थ देंगे तो सारे ग्रंथ का ही अर्थ गलत हो जायेगा।
क्षेत्र व्यतिरेक अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् ।
तत्तत्क्षेत्रं नान्यदभवति तदम्यश्च क्षेत्रव्यतिरेकः ॥१८॥ अर्थ-और जो एक देश जितने ( अपने ) क्षेत्र को व्याप कर रहता है वह उसका क्षेत्र है दूसरा नहीं है और उससे दूसरा देश जितने अपने क्षेत्र को व्याप कर रहता है, वह ही उसका क्षेत्र है, पहले वाला क्षेत्र उसका क्षेत्र नहीं है। यह क्षेत्र व्यतिरेक है।
भावार्थ-(१)यह ध्यान रहे कि यहाँ पर क्षेत्र अर्थात् आकाश क्षेत्र की बात नहीं है क्योंकि प्रकरण एक ही द्रव्य का है। (२) और यह भी ध्यान रहे कि एक द्रव्य के द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव का जो दूसरे द्रव्य के द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव में अत्यन्ताभाव है, उसमें क्षेत्र का जो अर्थ है वह भी यहाँ नहीं है। वहाँ तो यह अर्थ है कि एक द्रव्य के जितने प्रदेश हैं उनका दूसरे द्रव्य के प्रदेशों में अभाव है। वह अर्थ भी यहाँ नहीं है।(३) यहाँ तो यह अर्थ है कि एक द्रव्य का एक प्रदेश अपने जितने क्षेत्र में है अर्थात् वह प्रदेश ही उसका क्षेत्र है। उस क्षेत्र का उसी द्रव्य के दूसरे प्रदेश के क्षेत्र में अभाव है। यह क्षेत्र व्यतिरेक है।
काल व्यतिरेक अपि चैकस्मिन् समये यकाप्यवस्था भवेन्ज साप्यन्या ।
भवति च सापि तदन्या द्वितीयसमयेऽपि कालव्यतिरेकः ॥ १४९॥ अर्थ-और एक समय में जो भी अवस्था होती है वह दूसरी नहीं है, वह वही है और दूसरे समय में भी जो अवस्था होती है वह दूसरी ही है वह पहली नहीं है ( एक ही द्रव्य की एक पर्याय का दूसरी पर्याय से भित्रपना ) यह काल व्यतिरेक है।
भावार्थ-एक द्रव्य के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का दूसरे द्रव्य के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में अभाव है, वहाँ तो एक द्रव्य की एक पर्याय का दूसरे द्रव्य की पर्याय में अभाव अर्थ है। वह अर्थ यहाँ नहीं है। यहाँ तो एक ही द्रव्य की बात है। एक द्रव्य की एक समय की एक पर्याय उसी द्रव्य की दूसरे समय की दूसरी पर्याय से भिन्न है यह काल व्यतिरेक है।वह पर्याय वही है दूसरी नहीं है। दूसरी पर्याय दूसरी ही है पहली नहीं है। यह व्यतिरेक के बोलने का ढंग है। इसका लक्षण ही ऐसा है।