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m विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट -
यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान् ।
दूसरी बात, जिससे लड़ना है, उसे ठीक से पहचान लेना युद्ध कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिरणसमुद्यमे ।। २२ ।।
का पहला नियम है। जिससे भी लडना हो. उसे ठीक से पहचान हे राजन् ! उसके उपरांत कपिध्वज अर्जुन ने खड़े हुए लेना. यद्ध का पहला नियम है। समस्त यद्धों का. कैसे भी यद्ध हों धृतराष्ट्र-पुत्रों को देखकर उस शस्त्र चलने की तैयारी के | जीवन के-भीतरी या बाहरी-शत्रु की पहचान, युद्ध का पहला समय धनुष उठाकर हषीकेश श्रीकृष्ण से यह वचन कहा, हे | नियम है। और युद्ध में केवल वे ही जीत सकते हैं, जो शत्रु को ठीक अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करिए। से पहचानते हैं। जब तक मैं इन स्थित हुए युद्ध की कामना वालों को अच्छी | इसलिए आमतौर से जो युद्ध-पिपासु है, वह नहीं जीत पाता; प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन क्योंकि युद्ध-पिपासा के धुएं में इतना घिरा होता है कि शत्रु को के साथ युद्ध करना योग्य है।
पहचानना मुश्किल हो जाता है। लड़ने की आतुरता इतनी होती है कि किससे लड़ रहा है, उसे पहचानना मुश्किल हो जाता है। और
| जिससे हम लड़ रहे हैं, उसे न पहचानते हों, तो हार पहले से ही 27 र्जुन, जिनके साथ युद्ध करना है, उन्हें देखने की कृष्ण | | निश्चित है। 4 से प्रार्थना करता है। इसमें दो-तीन बातें आज की । इसलिए युद्ध के क्षण में जितनी शांति चाहिए विजय के लिए,
सुबह के लिए आखिरी समझ लेनी उचित हैं, फिर हम | उतनी शांति किसी और क्षण में नहीं चाहिए। युद्ध के क्षण में जितना सांझ बात करेंगे।
साक्षी का भाव चाहिए विजय के लिए, उतना किसी और क्षण में एक तो, अर्जुन का यह कहना कि किनके साथ मुझे युद्ध करना नहीं चाहिए। यह अर्जुन यह कह रहा है कि अब मैं साक्षी होकर है, उन्हें मैं देखें, ऐसी जगह मुझे ले चलकर खड़ा कर दें-एक देख लूं कि कौन-कौन लड़ने को है। उनका निरीक्षण कर लूं, उनको बात का सूचक है कि युद्ध अर्जुन के लिए ऊपर से आया हुआ आब्जर्व कर लूं। दायित्व है, भीतर से आई हुई पुकार नहीं है; ऊपर से आई हुई यह थोड़ा विचारणीय है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब मजबूरी है, भीतर से आई हुई वृत्ति नहीं है। युद्ध एक विवशता है, आब्जर्वेशन कम से कम रह जाता है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब मजबरी है। लडना पडेगा. इसलिए किससे लडना है. इसे वह पछ| निरीक्षण की क्षमता बिलकल खो जाती है। और जब क्रोध में होते रहा है, उनको मैं देख लूं। कौन-कौन लड़ने को आतुर होकर आ | हैं, तब सर्वाधिक निरीक्षण की जरूरत है। लेकिन बड़े मजे की बात गए हैं, कौन-कौन युद्ध के लिए तत्पर हैं, उन्हें मैं देख लूं। है, अगर निरीक्षण हो, तो क्रोध नहीं होता; और अगर क्रोध हो, तो
जो आदमी स्वयं युद्ध के लिए तत्पर है, उसे इसकी फिक्र नहीं | | निरीक्षण नहीं होता। ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं। अगर एक होती कि दूसरा युद्ध के लिए तत्पर है या नहीं। जो आदमी स्वयं | व्यक्ति क्रोध में निरीक्षण को उत्सुक हो जाए तो क्रोध खो जाएगा। युद्ध के लिए तत्पर है, वह अंधा होता है। वह दुश्मन को देखता - यह अर्जुन क्रोध में नहीं है, इसलिए निरीक्षण की बात कह पा नहीं, वह दुश्मन को प्रोजेक्ट करता है। वह दुश्मन को देखना नहीं रहा है। यह क्रोध की बात नहीं है। जैसे युद्ध बाहर-बाहर है, छू चाहता, उसे तो जो दिखाई पड़ता है, वह दुश्मन होता है। उसे | नहीं रहा है कहीं; साक्षी होकर देख लेना चाहता है, कौन-कौन दुश्मन को देखने की जरूरत नहीं, वह दुश्मन निर्मित करता है, वह | लड़ने आए हैं; कौन-कौन आतुर हैं। दुश्मनी आरोपित करता है। जब युद्ध भीतर होता है, तो बाहर यह निरीक्षण की बात कीमती है। और जब भी कोई व्यक्ति दुश्मन पैदा हो जाता है।
| किसी भी युद्ध में जाए–चाहे बाहर के शत्रुओं से और चाहे भीतर जब भीतर युद्ध नहीं होता, तब जांच-पड़ताल करनी पड़ती है के शत्रुओं से-तो निरीक्षण पहला सूत्र है, राइट आब्जर्वेशन कि कौन लड़ने को आतुर है, कौन लड़ने को उत्सुक है! तो अर्जुन | पहला सूत्र है। अगर भीतर के शत्रुओं से भी लड़ना हो, तो राइट कृष्ण को कहता है कि मुझे ऐसी जगह, ऐसे परिप्रेक्ष्य के बिंदु पर | | आब्जर्वेशन पहला सूत्र है। ठीक से पहले देख लेना, किससे लड़ना खड़ा कर दें, जहां से मैं उन्हें देख लूं, जो लड़ने के लिए आतुर यहां है! क्रोध से लड़ना है तो क्रोध को देख लेना, काम से लड़ना है तो इकट्ठे हो गए हैं।
काम को देख लेना, लोभ से लड़ना है तो लोभ को देख लेना। बाहर