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वर्तमान कालचक्र के आदि युग-द्रष्टा थे भगवान ऋषभदेव । उस युग का मानव कुछ नहीं जानता था । जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ था, प्रकृति के भरोसे पड़ा था। मिल गये फल-फूल, कंद-मूल तो खा लिया, नहीं तो पड़ा है निष्क्रिय | हमारा पौराणिक इतिहास कहता है, भगवान् ऋषभदेव के जन्म के समय भोग भूमि की परंपरा थी । तात्पर्य है, जो कुछ प्रकृति से मिल गया, बस उसे भोग लिया न नवनिर्माण की दृष्टि थी और न जीवन-विकास की | विना कुछ कर्म एवं श्रम किए भोगोपभोग करना, यह आदर्श रहा है भोग-भूमि का । विना किसी श्रम विशेष के यदि मुफ्त में ही भोगोपभोग के साधन मिल जाएँ, तो कौन हाथ-पैर हिलाए क्यों श्रम किया जाएँ ? ऐसे व्यक्तियों के लिए ही कहा गया " मुफ्त का चन्दन, घिस मेरे नन्दन ।" स्थिति विचित्र है उस युग की । गये कल्प वृक्ष के पास । जो-कुछ मिला, खा लिया । नर को मिला तो उसने खा लिया । और नारी को मिला तो अपने उदर में डाल दिया । न नर को नारी की बुभुक्षा शान्त करने का विचार है और न नारी को नर को खिलाने का कोई भाव है । परस्पर एक-दूसरे के प्रति कोई दायित्व नहीं है । सब अपने-अपने भोग की क्षुद्र कारा में बन्द हैं । जब नर-नारी का दाम्पत्य भाव का ही कोई दायित्व नहीं है तो पुत्र-पुत्री के दायित्व का, बहन-भाई और समाज के दायित्व का प्रश्न ही नहीं उठता । परन्तु, वह भोग की धारा सदा-सर्वदा एक-सी तो रह नहीं सकती । समय ने करवट बदली। इधर प्रकृति में उत्पादनरूप देय शक्ति कम होने लगी और उधर उपभोक्ता बढने लगे । आप उन्हें कल्पवृक्ष कहिए, वन-फल कह दीजिए या कन्द-मूल कह दीजिए, उनका उत्पादन कम होने लगा और खाने वालों की संख्या बढने लगी, तब चारों ओर हा-हाकार मचने लगा, छीना-झपटी शुरू हो गई । खाद्य संकट की यह परिस्थिति हजारों-लाखों व्यक्तियों के सामने थी। सब देख तो रहे थे, परन्तु उनमें परिस्थिति के अनुरूप समस्या का हल करने वाला द्रष्टा कोई नहीं था । एक द्रष्टा आया | वह था ऋषभकुमार | भगवान ऋषभदेव ने देखा कि अब तक इनका जीवन, जो चला आ रहा है, वह केवल भोग पर आश्रित है | और, वह भोग भी कौन-सा ? भोग भी स्वोपार्जित नहीं, सिर्फ प्रकृति पर आश्रित है । प्रकृति से जो मिल गया, वह मुफ्त का भोग । अत: उन्होंने सोचा कि इन्हें जीवन जीने के लिए कर्म देना चाहिए । अस्तु, निष्क्रिय मानव को सक्रिय बनकर जीवन जीने की कला सर्व प्रथम सिखाई भगवान ऋषभदेव ने | धर्म-तीर्थंकर बनने से पूर्व में बने कर्म-तीर्थकर, जो तत्कालीन मानव-जाति के लिए महत्त्वपूर्ण अपेक्षा थी।
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