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- देवेन्द्रों द्वारा रचित महान अनमोल सिंहासन है । तीन-तीन छत्र हैं । दोनों ओर दिव्य चँवर हैं । लोकत्रय के एकमात्र स्वामी हैं, फिर भी 'निरुपम निःसंगता' अर्थात् संगता में नि:संगता संगत नहीं होती है, किन्तु हे प्रभो ! आप में यह पूर्णतया सुसंगत है ।
एक पात्रकेशरी ही क्या, प्राय: सभी आचार्यों ने आगमकाल से लेकर अब तक इस अनुपम निर्धूमता का अर्थात् अनासक्ति योग का वर्णन किया है । यही वह परम ईश्वरत्व है, जो इस प्रकार परस्पर विरोधी दोनों स्थितियों में अपनी अविचल संगति बनाए रख सकते हैं |
पूर्णिमा, प्रकाश की दृष्टि से प्रकृति के चन्द्र की देन है, किन्तु कार्तिक मास की अमावस्या जो सघन अंधकार से प्रकाशमान हुई है, उसमें आपकी ही दिव्य हेतुता है । निर्वाण के समय हजारों ही रत्नदीप श्रद्धा में जल उठे । और, इसका प्रारम्भ किया लिच्छवी और मल्ल गणतन्त्र के अठारह राजाओं ने ।
यह वह महापुरुष है, जिसने अमावस्या को प्रकाशित कर पूर्णिमा का रूप दिया । और, संकेत दिया कि जीवन में अँधेरा है तो क्या है ? उसके लिए कायर होकर रोना क्या है ? गण में शक्ति ही नहीं, महाशक्ति है । सब मिलकर परस्पर सहयोग का आदान-प्रदान करें, तो अँधेरे में उजाला हो सकता है । दुर्भाग्य की तमसाच्छन्न अमावस्याएँ प्रकाश की पूर्णिमाएँ बन सकती हैं । समय पर सही दिशा में, सही कर्म का सही कदम उठाना चाहिए, यदि इस संकेत को भारत या अन्य कोई भी देश एवं उसकी जनता मनसा, वाचा, कर्मणा अपना ले, तो कुछ भी असंभव नहीं है । मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है । यही संदेश देता है भगवान का निर्वाण रात्रि का दीपावली पर्व जन-जन को ।
श्रमण भगवान महावीर कार्तिक अमावस्या को निर्वाण प्राप्त कर गए, सिद्ध हो गए । अब वे यहाँ हमारे सामने नहीं हैं । व्यवहार दृष्टि से कहा जा सकता है यह, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है । किन्तु, मेरी दृष्टि में भगवान् अनेक रूप होकर भक्ति रूप से हर भक्त के हृदय में विराजमान हैं । इसी से ही वैष्णव संत हरि को 'घट-घट वासी' कहते हैं । बात सर्वथा तर्क-संगत है, युक्तियुक्त है वह भक्त ही क्या, जिसके हृदय में भगवान विराजमान न हो ? स्मृति रूप में ही सही, विराजमान तो हैं ही ।
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