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क्या आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र मोह मुग्ध आत्मा वैसा ही कार्य नहीं करता है, जैसा कि पण्डों ने किया था ? साधक सामायिक करता है, पौषध करता है, उपवास करता है और विभिन्न नियमों का परिपालन भी करता है, किन्तु फिर भी वह पूर्व वासना में बँधा वहीं खड़ा रहता है । वह समझता है, कि मैं अध्यात्म साधना कर रहा हूँ, किन्तु मोह-भाव के कारण वह अपनी वास्तविक स्थिति को नहीं समझ पाता । मोह के प्रभाव से वह स्थिति को ही गति अर्थात् यात्रा समझ लेता है । वह अपने हृदय में भले ही यह विचार करे, कि मैं अध्यात्म साधना कर रहा हूँ, पर मोह मुग्ध आत्मा में अध्यात्म-भाव तो लेश मात्र भी नहीं रहने पाता । दृष्टि में मोह भी रहे और अध्यात्म भाव भी रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? क्या कभी रजनी और दिवस दोनों एक काल में और एक देश में एक साथ खड़े रह सकते हैं ?
जैन-धर्म साधना को महत्त्व अवश्य देता है, किन्तु अति साधना को नहीं । साधना जीवन के लिए होती है, साधना का लक्ष्य है जीवन को विमल और पवित्र बनाना और यह पवित्रता सहज भाव से होने वाली ज्ञान प्रधान अन्तर्मुख साधना से होती है । जो साधना अन्तर्मुख न होकर बहिर्मुख होती है, आत्माप्रधान न होकर देह-प्रधान होती है, अपनी सहज शक्ति से आगे बढ़कर अति के रूप में देह दण्ड एवं हठ योग का रूप ले लेती है, वह अति साधना है, और वह आध्यात्मिक पवित्रता का हेतु नहीं बनती है । प्राचीन साहित्य का जब हम अध्ययन करते हैं, तब हमें ज्ञात होता है, कि भारत में किस प्रकार की हठवादी और अतिवादी साधना की जाती रही है । तापसों के जीवन का वर्णन जब हम पढ़ते हैं, तब हमें ज्ञात होता है, कि उस युग के तापस अपने आश्रमों में, जंगलों में और पर्वतों पर किस प्रकार की प्रचण्ड तपस्या करते थे । जहाँ एक ओर तापसों का प्रचण्ड तप प्रसिद्ध है, वहाँ दूसरी ओर तापसों का प्रचण्ड क्रोध भी प्रसिद्ध है । विश्वामित्र ने कितनी प्रचण्ड तपस्या की, किन्तु क्रोध भी उनका उतना ही भयंकर था । दुर्वासा ऋषि का क्रोध तो महाभारत में और प्राचीन साहित्य में प्रसिद्ध है । यदि तप का परिणाम क्रोध ही है, तो उस तप से आत्मा का हित साधन नहीं हो सकता । तापसों की साधना का अतिवाद यह है, कि वे भयंकर से भयंकर देह-पीड़ा को एवं देह- दमन को ही धर्म समझते थे । भगवान् पार्श्वनाथ के युग में और भगवान महावीर के युग में भी जिन तापसों का वर्णन उपलब्ध होता है, उससे ज्ञात होता है कि उनका तप तो उग्र होता था, किन्तु उन्हें आत्म-बोध नहीं होता था । वर्णन किया गया है कि कुछ तास पानी
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