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गई थी-जो महानुभाव मन, वचन और कर्म में एक रूप हो, किसी तरह का विभेद न हो, वह महात्मा होता है । इसके विपरीत, जिसके मन में कुछ और हो, वचन में कुछ और हो, तथा कर्म में कुछ और ही हो, वह दुरात्मा होता है। अर्थात् अभेद-वृत्ति महात्मा का लक्षण है और भेद-वृत्ति दुरात्मा का । श्लोक
" मनस्येकम् वचस्येकम् कर्मण्येकम् महात्मनाम् | मनस्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ।।"
खेद है, संसार-पक्ष में तो महात्माओं की अपेक्षा दुरात्माओं का ही एक छत्र राज्य होता जा रहा है । इस राज्य के भयंकर दृश्य आए दिन आँखों के आगे से गुजर रहे हैं और कानों में टकराते हैं, किन्तु खेद से भी बढ़कर खेद तो इस बात का है, कि माया महाठगनी ने धर्म के पवित्र क्षेत्र में भी अपने हाथ-पैर अच्छी तरह फैला दिए हैं । जो धर्म-परम्पराएँ निर्दम्भता के मूलाधार पर अवस्थित थीं, उनका आधार भी अब माया अर्थात् दम्भ वृत्ति लेती जा रही है । साधना के क्षेत्र में भी माया के विभिन्न मुखौटे लग गए हैं और लगते जा रहे हैं।
धर्म-साधना की वृत्ति के महानुभावों के लिए एक धर्म सूत्र था-"नि:शल्यो व्रती” –तत्त्वार्थ ७.१३ - जो शल्य से रहित होता है, वही वस्तुत: सच्चा व्रती अर्थात् शुद्ध व्रतधारी साधक होता है । शल्य का अर्थ-काँटा है । इस प्रकार विषाक्त काँटा शरीर में कहीं भी लग जाता है और शीघ्र ही निष्कासित नहीं होता है, तो धीरे-धीरे सारे शरीर को पीड़ा से आक्रान्त करता हुआ एक दिन उसे नष्ट ही कर देता है | यही स्थिति व्रती के व्रत की भी होती है । शल्य व्रती के साधना-जीवन का भयंकर विषाक्त वह काँटा है, जो व्रत को अन्तत: समाप्त ही कर देता है । और व्रत के अभाव में व्रती मात्र एक बहुरूपिया बन कर रह जाता है, जो बायाचार के प्रदर्शन के द्वारा एकमात्र अपनी रोजी-रोटी का धंधा चलाता है ।
धर्म और शल्य का परस्पर अंधकार और प्रकाश जैसा विरोध है । जहाँ शल्य है, वहाँ व्रत कहाँ ? जहाँ अंधकार है, वहाँ प्रकाश कहाँ ? शल्य, साधना का एक प्रकार का वह केंसर है, जो अन्तत: साधक को साधना की दृष्टि से प्राण-घातक स्थिति में पहुँचाकर दम लेता है ।
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