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श्रद्धा-भाव से यथोचित सेवा नहीं करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता
जिसके पास कुछ भी दैवी-शक्ति नहीं है, वह यदि प्रशंसा आदि प्राप्त करने की दृष्टि से अपने को दैवी-शक्ति प्राप्त महान योगी के रूप में प्रसिद्ध करता है, पाखण्ड फैलाता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ।
उक्त अशिष्टाचार भी निषिधता के कारण सभ्य-जनों को शिष्टाचार की प्रेरणा देते हैं । इस प्रकार उक्त वर्णन की अशिष्ट व्यवहारों की निवृत्ति के लिए विशुद्ध हेतुता सुस्पष्ट है ।
भारतीय-संस्कृति एक विशाल कल्पतरु है । जैन-संस्कृति भी उसी कल्प-तरु की एक महत्तम पुनीत शाखा है । जैन-संस्कृति के प्रथम उद्गाता आदि देव भगवान ऋषभदेव हैं, तो अन्तिम उद्गाता श्रमण भगवान महावीर हैं | खेद है, इस महान जैन- संस्कृति को गंभीरतम, साथ ही निष्पक्षतम दृष्टि से व्यापक अध्ययन न करने वाले कुछ मनीषियों ने उसे मात्र एक धार्मिक तथा वैराग्य की संस्कृति के रूप में एक ओर सीमित कोने में धकेल दिया है । किन्तु, मूलत: तथ्य ऐसा नहीं है । प्रस्तुत संक्षिप्त लेख पर से स्पष्टतया परिलक्षित हो जाता है, कि जैन-संस्कृति एकांगी संस्कृति नहीं है । उसमें धार्मिक एवं सामाजिक-दोनों ही संस्कृतियों का यथोचित रूप से संगम है । जैसा कि लोक संस्कृति में गंगा एवं यमुना का प्रख्यात पावन संगम ।
जैन वाड्.मय में शिष्टाचार सम्बन्धी नियमों एवं उपनियमों का विस्तार के साथ वर्णन है | आचारांग आदि प्राचीनतम आगम-साहित्य में भी इस प्रकार के वर्णन यत्र-तत्र समुपलब्ध होते हैं । नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका तथा अन्य प्रकरण ग्रन्थों में भी पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं के अनेक रोचक, साथ ही सुसंस्कृत उल्लेख विस्तार से मिलते हैं । प्राचीन जीवन-चरित्र एवं कथा-साहित्य भी शिष्टाचार के वर्णनों से सुसमृद्ध है । बुद्धिमान पाठक जानते हैं कि पत्रिका के किसी एक लेख में सभी वर्णनों को लिपिबद्ध करना कैसे संभव हो सकता है ? अतः हमने यहाँ अपने को प्राचीन आगम-साहित्य तथा उसमें भी कुछ प्रसिद्ध आगमों तक ही सीमित रखा है । उक्त समुल्लेखों पर से ही भारतीय जन-जीवन की शिष्टाचार सम्बन्धी गरिमा की एक ऐसी सुरम्य झाँकी
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