________________
धर्म-क्रान्ति की दिशा में एक नया कदम :
आर्य चन्दनाश्री जैनाचार्य पदालंकृत
प्रज्ञामहर्षि श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव क्रान्ति के उद्गाता हैं | उन्होंने जैन परंपरा में तर्कहीन मान्यताओं को सत्य के यथार्थ धरातल की ओर मोडा है । अज्ञान एवं अन्ध विश्वास के आवरण को हटाकर सत्य का प्रकाशन किया है । उनके अनेक क्रान्तिकारी चरणों में एक महत्त्वपूर्ण चरण है मातृजाति का गौरव । प्रस्तुत गौरव के लिए जैन-परम्परा में सहस्राधिक वर्षों से चली आ रही परम्परा को तोड़ा।
मातृ-जाति की रूढ़िवाद ग्रस्त सामाजिक अवमानना से जैन धर्म जैसा उदार धर्म भी चिरकाल से प्रभावित होता रहा, जिससे पूज्य गुरुदेव का मन-मस्तिष्क सदैव अनुपीडित रहा | आपश्री का कहना है साधु और साध्वी में क्या अन्तर है ? आत्म-साधना के प्रशस्त पथ पर यह शरीर-भेद क्या अर्थ रखता
श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव ने २६ जनवरी १९८७ को सत्यं शिवं सुन्दरम् की त्रिपथगा साध्वीरत्न श्री माँ चन्दनाश्रीजी को एकमात्र पुरुषाधिकृत गौरवशाली आचार्य पद से अलंकृत किया, जो कि भिक्षुणी-संघ के लिए अब तक निषेध का रूप लिए हुए था । इस प्रकार पूज्य गुरुदेव ने साध्वी वर्ग के लिए गरिमा के द्वार खोल दिए हैं।
तीर्थंकर महावीर ने चार तीर्थ की स्थापना की | तीर्थंकर का अर्थ ही है-तीर्थ का संस्थापक | उन्होंने श्रमण और श्रमणोपासक ( श्रावक) के समान श्रमणी ( साध्वी ) और श्रमणोपासिका ( श्राविका ) को अपने तीर्थ में अपने संघ में एक समान स्थान दिया | कितनी महत्त्वपूर्ण बात है कि तीर्थंकर समवसरण में देशना देने बैठते हैं, तो सबसे पहले ' नमो तित्यस्स' बोल कर तीर्थ को
(५०२)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org