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नागरिकों से उनका सर्वप्रथम प्रश्न था कि घर में अन्न तो काफी है न ? ये घटनाएँ बताती हैं कि भारत के महनीय सम्राटों के मन में भी अन्न के प्रति कितना समादर का भाव था | ये भूख की व्याकुलता के क्षणों में घटित घटनाएँ नहीं हैं | यह तत्कालीन समृद्ध भारत और उसके समृद्ध सम्राटों का इतिवृत्त है, जो कहता है- गगनचुम्बिनी समृद्धि के समय भी अन्न का अपमान न करो, पूरी श्रद्धा के साथ एक एक दाने का सम्मान करो । महर्षि व्यास का यह वचन सदा स्मरणीय है अन्न मनुष्य का प्राण है | सब कुछ अन्न में प्रतिष्ठित है
" अन्नं प्राणा नराणां हि, सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् । "
निष्कर्ष :
निष्कर्ष की भाषा में कहा जाए तो भारत की हर वर्ष उलझती जाती अन्न समस्या का तकाजा है कि जन जीवन को भुक्खड़पन की गलत मनोवृत्ति से मुक्त किया जाए । भोजन में आशुतोष होना आवश्यक है । कृषि को आर्य कर्म की पुन: स्वीकृति मिलनी चाहिए । सर्दी, गर्मी और वर्षा में तनतोड़ श्रम करने वाले धरती के बेटे किसान को हीन दृष्टि से नहीं, अपितु प्रजापालक के रूप में समादर की दृष्टि से देखा जाए । देश के हर वर्ग का चटोरापन कम होना चाहिए । जीभ की गुलामी कम भयंकर नहीं है | अत: समारोहों, पार्टियों
और होटलों में से भोज्य पदार्थों की अनर्गल विविधता को समाप्त करना जरूरी है। भोजन सात्त्विक, साथ ही अल्प होना चाहिए | अल्पाहार पुण्यकर्म है, यदि बिना किसी लाचारी के विवेक दृष्टि से किया जाए तो | विवेकशील अल्पाहारी अन्न बचाकर अपने साथ के अन्य बन्धुओं को जीने का सुअवसर प्रदान करता है। भारत का भोजन सम्बन्धी चिरन्तन सूत्र पुनरुज्जीवित होना चाहिए कि अच्छा आदमी जीने के लिए खाता है, न कि खाने के लिए जीता है ।
अक्तूबर १९७५
(५०१)
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