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और अधिक दहका देते हैं, भडका देते हैं, फैला देते हैं। इन धूर्तों का जाल इतना फैला हुआ है कि कुछ पूछिए नहीं। पता नहीं चलता, कि ये राम के रूप में रावण कितनी अधिक संख्या में हैं।
आप जानते हैं, इस दावानल का मूल कहाँ है। यह कहाँ से प्रज्वलित होता है। यह कहाँ पर स्फुलिंग-रूप में उठकर प्रलयाग्नि बन जाता है। आपको मालूम होना चाहिए, इसका मूल एकान्तवाद है। मैं ही सच्चा हूँ, मेरे ही सिद्धान्त
और कर्म सच्चे हैं। मैं ही एक मात्र भला हूँ, सज्जन हूँ। और, सब दुष्ट हैं, अभद् हैं। समग्र सत्य मेरे ही मुख-विवर में सन्निहित है, संचित है। बस, अन्यत्र कुछ नहीं मिलने वाला है। अन्यत्र जो कुछ भी है, असत्य है, अभद्र है, अमंगल है। विश्व का कल्याण मेरे द्वारा बनाए गए एवं प्रचारित किए गए विचारों में ही है। वे ही एक मात्र सुविचार हैं, शेष सब कुविचार। यह एकान्तवाद है। भले ही यह एक व्यक्ति का हो, एक समूह का हो, चाहे नये-पुराने किसी भी एक संगठन का हो, या किसी पंथ विशेष का हो, जब तक इस एकान्तवाद को मूलत: ध्वस्त नहीं किया जाएगा, तब तक संसार में शान्ति नहीं हो सकती । मानव जाति के संहार के लिए एक ओर शास्त्रों के नाम पर शब्दों का एक भीषण भंडार भरा जा रहा है, जो पहले से ही काफी भरा हुआ है, तो दूसरी ओर शत्रु के संहार हेतु एक-से एक भयंकर शस्त्रों के भंडार तैयार हो रहे हैं। परमाणु-बम जैसे शस्त्र तो आज बहुत मामूलि रह गए हैं। उनसे भी अधिक भयंकर संहारक आविष्कार हो रहे हैं, कि एक बटन दबाते ही समग्र जानी हुई धरती समाप्त हो कर एक भीषण श्मशान का रूप ले सकती है। धरती पर लड़ता-लड़ता इन्सान, अब देवताओं के निवास के रूप में प्रसिद्ध आकाश में भी राक्षसी लीला खेलने की तैयारी कर रहा है, आकाशीय अन्तरिक्ष युद्ध के रूप में। मूल में देखा जाए, तो यह सब एकान्तवाद एवं हठवाद का ही दुश्चक्र है। जल्दी-से-जल्दी इसका समाधान अपेक्षित है। अन्यथा, अन्यथा के रूप में क्या हो जाएगा, कुछ भी कहा नहीं जा सकता।
एकान्तवाद का समाधान अन्य किसी साधन में नहीं है। अनेकान्त की अनन्त-मूर्ति महाश्रमण महावीर के अनेकान्तवाद के द्वारा ही समाधान हो सकता है। अनेकान्त स्वयं में अनन्तमूर्ति है। इसलिए कि सत्य अनन्त है, और अनन्त सत्य के सर्वांगीण रूप को अपने में समाहित करने की दृष्टि से अनेकान्त भी अनन्त है। खेद है, विभिन्न मत-मतान्तरों के रूप में सत्य खण्डित हो कर,
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