Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 261
________________ " यह विरोधोक्ति कैसे " - प्रश्नकर्ता का प्रतिप्रश्न था । मैंने कहा-" भारत में दिन है, तो इसी समय अमेरिका आदि कुछ देशों में रात भी है ।" पंडितजी हँस पड़े कि आपका अनेकान्त दर्शन विचित्र ही नहीं, सत्य के अविचलित मूलाधार पर भी स्थित है । मान गया, मैं आपको और आपके अनेकान्तदर्शन को । आचार और व्यवहार की दृष्टि में भी अनेकान्त का सर्वत्र प्रवेश है | अहिंसा के परिपालक साधु के लिए सूक्ष्म-से-सूक्ष्म प्राणी तक की हिंसा निषिद्ध है। फिर भी महावीर गंगा जैसी महानदियों को धर्म प्रचारार्थ पार करते हैं । और, अनेक कारणों का उल्लेख करते हुए अपने संघ के साधु-साध्वियों को भी नौकाओं द्वारा नदियों को पार करने की सूचना देते हैं। छोटी जल-धाराओं को पैरों से भी पार किया जा सकता आचारांग सूत्र के अनुसार अपने प्राणों के रक्षार्थ सचित्त लता-वृक्ष आदि का भी अवलम्ब लिया जा सकता है । यही बात सत्य के संबंध में भी है । अन्य किसी प्राणी की रक्षा के लिए यथोचित असत्य का सहारा लेने का संविधान है| आचारांग सूत्र इस सन्दर्भ में स्पष्ट कहता है - " जाणं वा नो जाणंति वदिज्जा" -जानता हुआ भी मैं नहीं जानता, ऐसा कह देना चाहिए | आधाकर्म दोष-युक्त आहार निषिद्ध है भिक्षु के लिए | किंतु, सूत्रकृतांग सूत्र इस संबंध में एकान्त रूप से विधि या निषेध का निषेध करता है । वह सूत्र है - " अहाकडाई भुंजंति अण्णमण्णे सकम्मुणा । उवलित्ते ति जाणेज्जा, अणुवलित्ते ति वा पुणो ।। एतेहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जती, एतेहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ।। " २,५,८-९ (५१२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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