Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 262
________________ - आधाकर्म दोष युक्त आहारादि का, जो साधु उपभोग करते हैं, वे दोनों ( आधाकर्म दोष युक्त आहारादि का दाता तथा उपभोक्ता ) परस्पर अपने ( पाप) कर्म से उपलिप्त होते हैं अथवा नहीं होते, ऐसा जानना चाहिए । इन दोनों एकान्त मान्यताओं से व्यवहार नहीं चलता है, इसलिए इन दोनों एकान्त मन्तव्यों का आश्रय लेना अनाचार समझना चाहिए । उक्त कथन परिस्थिति विशेष में अनेकान्त-दर्शन का यह समीक्षित निर्णय है। जो साधकों को एक ही कर्म में उपलिप्तता एवं अनुपलिप्तता आदि की कभी हाँ में और कभी 'ना' में उपयुक्त दृष्टि देता है । उक्त अध्ययन में हिंसा आदि के सम्बन्ध में भी यही अनेकांत-दृष्टि है । अतीत के महापुरुषों के व्यवहार भी अनेकान्त की दृष्टि के आधार पर ही क्रियान्वित होते रहे हैं। तीर्थंकर महावीर काफी समय तक अनन्त सत्य की उपलब्धि के लिए मौन रहे हैं । फिर काफी समय तक उपलब्ध सत्य का जन-जन को बोध कराने के लिए धर्म-देशना के रूप में घंटों क्या, प्रहरों बोलते भी रहे हैं । एक समय वह भी था, जब धूल-धूसरित भूमि या शिलापट्ट पर बैठे हैं, तो एक वह भी समय है, जब रत्न-जडित सिंहासन पर विराजमान हैं- “ सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे।" सिंहासन के समान ही एक समय के परित्यक्त छत्र और चामर भी पुन: उपयुक्त हो गए हैं । " कुन्दावदात चल चामर चारू शोभं । ...छत्र त्रयं विभाति । " यह मात्र भक्ति स्तोत्रों में ही नहीं,समवायांग आदि मूल आगमों में भी वर्णित है । वासुदेव श्रीकृष्ण परिस्थिति विशेष में गाय चरानेवाले गोपाल हैं, तो दूसरी परिस्थिति में वे ही सुदर्शन चक्रधारी सम्राट हैं । जन-मंगल न्याय के सूत्रधार हैं । श्रीकृष्ण का वह भी एक महान रूप है, जो अर्जुन को, मैत्री के रूप में उसका सारथी बनकर सहायता भी देते हैं । वे सिर्फ सारथी ही नहीं, युद्ध रथ के घोड़ों की परिचर्या करते हुए एक साधारण सईस भी बन जाते हैं । ये सब बातें यूँही साधारण नहीं हैं, अपितु अनेकान्त दर्शन के प्राणवान जीवंत उदाहरण हैं । स्पष्ट है, यहाँ अनेकान्त पक्षाघात से ग्रस्त यूँही एक करवट पड़ा हुआ रोगी नहीं है, अपितु स्वतन्त्र रूप से घूमता-फिरता, उठता (५१३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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