Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 264
________________ होते हैं । अत: वे गुणी के ही तादात्म्य रूप से स्वरूप हैं- “ गुण समूहो दव्वं । " भगवती सूत्र में सामायिक के सम्बन्ध में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान महावीर ने कहा- “ हे आर्य ! आत्मा ही सामायिक (समत्व-भाव) है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ (विशुद्धि) है " आयो णे अज्जो ! समाइए, आया णे अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठे । " अब भेद पक्ष लीजिए, आत्मा के ज्ञानादि गुण और घट आदि पदार्थों के रूपादि गुण, उक्त वाक्यों में 'सम्बन्ध षष्ठी' रूप विभक्ति स्पष्ट ही भेद की सूचक है | " आत्मनो ज्ञानगुणाद्यः, घटादि पुद्गलस्य रूपाद्यो अनन्तगुणा: " आदि वाक्यों द्वारा प्राचीन दर्शन-ग्रन्थों में स्पष्ट ही भेद उल्लिखित है | शब्द-शास्त्र भी इसका समर्थक है । क्योंकि भेद में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है । भेदवाद के पक्ष में श्रमण भगवान महावीर का कथन है "गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा" -द्रव्य, गुणों का आश्रय है, आधार है । जो प्रत्येक द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण होते हैं । इसमें गुण-गुणी का भेद स्पष्ट परिलक्षित होता है । . लेख का विस्तार काफी हो गया है । फिर भी श्रमण भगवान महावीर का एक वचन उद्धृत करते हुए गौरवानुभूति करने से वंचित नहीं होना चाहता। सूत्रकृतांग में भगवान महावीर का अनेकान्त के सम्बन्ध में एक प्रवचन है, जो संक्षेप में अनेकान्तदर्शन की मूल आत्मा को सर्वतोमुखी रूप से उजागर कर देता है “ विभज्जवायं च वियागरेज्जा" -विचारशील प्रवक्ता एकान्तवाद में न उलझ कर सदैव विभज्यवाद-अनेकान्त से युक्त वचन का प्रयोग करे | विभज्यवाद का अर्थ है- अनेकान्त-दृष्टि से हर बात को यथोचित विभक्त अर्थात विभाजित करके बोलना। श्रमण भगवान महावीर विभज्यवाद का केवल उपदेश दे कर ही नहीं रह गए, प्रत्युत यथाप्रसंग वे उसका उपयोग एवं प्रयोग भी करते रहे हैं | एक बार एक मनीषी ने भगवान से प्रश्न किया कि, " कुलत्थी भक्ष्य है, या अभक्ष्य?" महाश्रमण भगवान महावीर ने अनेकान्त की भाषा में तत्काल उत्तर दिया- कुलत्थी भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी । कुलत्थी एक अन्न (५१५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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