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नमस्कार करते हैं । उसमें न साध्वी को अलग करते हैं और न श्राविका को । हम भी भाव वन्दना में जब 'नमो लोए सव्व साहूणं ' पढते हैं, तब कहाँ भेद करते हैं, साधु-साध्वी का | मध्य युग में आकर हमारे धर्मगुरुओं ने परिवर्तित लोक-परम्पराओं के समक्ष धर्म-क्रान्ति के अपने हथियार डाल दिए । श्रमण भगवान महावीर कहते हैं साध्वी राग-द्वेष पर विजय पा कर, मोह के क्षय के अनन्तर एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय करके वीतराग अरहन्त हो सकती है और आयु-कर्म के साथ शेष वेदनीय, नाम एवं गोत्र, तीनों कर्मों का क्षय करके सिद्ध हो सकती है । आत्मा की परम विशुद्ध स्थिति में वह स्थित हो सकती है, परन्तु हमारे मध्य-काल के कुछ परम्पराओं के धर्मगुरुओं के कथनानुसार साध्वी प्रवचन-सभा में प्रवचन नहीं दे सकती है, न आचार्य, उपाध्याय पद पर आसीन हो सकती है, मैं विचार करता हूँ कि महावीर कहते हैं- वह अरहंत बन सकती है, केवलज्ञान प्राप्त कर कर्म-बन्धन से मुक्त हो कर सिद्ध बन सकती है, फिर क्या कारण है कि वह आचार्य नहीं बन सकती ? आचार्य, उपाध्याय आदि पद आत्म-गुणों की योग्यता के हैं या नर और नारी देह के हैं ? यदि पुरुष के शरीर के आधार पर आचार्य आदि पद दिए जाते हैं, तो मैं न — नमो लोए आयरियाणं' बोलूंगा और न ' नमो लोए उव्वझायाणं ।' तीर्थंकर महावीर के शासन में, जिन शासन में नमस्कार देह को नहीं, आत्म-गुणों को किया जाता है- भले ही वे गुण पुरुष में हों या स्त्री में हों अर्थात साधु में हों या साध्वी में - दोनों हमारे लिए वन्दनीय हैं । चैतन्य की दृष्टि से विचार करें, तो साध्वी को आचार्य पद देने में कहाँ अटक आती है । मध्य-युग में फैले इस भ्रान्ति के अन्धकार का भेदन करना ही होगा ।
आज २६ जनवरी है, गणतन्त्र दिवस है । २६ जनवरी १९५० को भारतीय संविधान लागू हुआ और उसमें पुरुष के समान नारी को भी समान अधिकार प्राप्त हुआ । जितना मूल्य पुरुष के वोट का है, उतना ही मूल्य नारी के वोट का है। इतना ही नहीं, यदि नारी-वर्ग संघटित होकर निर्णय कर ले तो वह शासन को बदल सकती है, शासन के तरीकों को बदल सकती है | नारी की धर्म-साधकों में संख्या की दृष्टि से पुरुष से अधिक ही संख्या रही है हर युग में । श्रमण भगवान महावीर के शासन में श्रमण चौदह हजार थे, तो श्रमणियों की संख्या छत्तीस हजार तक पहुँच गई थी । साध्वियों की साधना-शक्ति को, उनकी योग्यता को और उनके गुणों को नकारा नहीं जा सकता ।
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