Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 244
________________ जीवन का केन्द्र बिन्दु : योग्य भोजन अन्नं वै प्राणा: प्राण की परिभाषा करते हुए भारत के एक महान तत्त्वदर्शी आचार्य ने कभी कहा था- ' अन्नं वै प्राणा: । ' इसका अर्थ है- ' अन्न ही प्राण है ।' प्राण का यह लक्षण कारण में कार्य का उपचार है | अन्न कारण है प्राण का और प्राण कार्य है अन्न का | अन्न के अभाव में प्राण टिक नहीं सकते, प्राणी अधिक देर जीवित नहीं रह सकते । आहार की महत्ता छह-छह महीनों के लम्बे उपवास करनेवाले अध्यात्मज्ञानी भगवान महावीर, जिनको तथागत बुद्ध ने भी दीर्घतपस्वी के आदर्श नाम से सम्बोधित किया है, उन्होंने स्थूल आहार से सूक्ष्म आहार तक की ज्ञान यात्रा करते हुए, दृश्य आहार से अदृश्य आहार तक की सूक्ष्म विवेचना करते हुए कहा था - “संसारी प्राणी एक जन्म से दूसरा जन्म ग्रहण करते समय अन्तराल में कुछ क्षण ही अनाहारक रहता है, अन्यथा वह निरन्तर आहारक है । " इसका अर्थ हैआहार देह धर्म है, जो देह धारण के लिए आवश्यक है । इसी सन्दर्भ में प्राकृत का एक पुरातन सूत्र है- " आहारठ्ठिया पाणा । " प्राणों की स्थिति आहार पर आधारित है। आलोचना अत्याहार की : अतः प्रश्न आहार और अनाहार का नहीं है । क्षुधा निवृत्ति के लिए आहार ग्रहण करना अपने में कोई अपराध नहीं है, जिसकी आलोचना की जाए । आलोचना अत्याहार की है। आहार की आवश्यक सीमा का अतिक्रमण करने (४९५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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