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जब वे पिछले दिनों वीरायतन आए थे | यह इस तरह की केवल एक घटना ही नहीं है, अपितु अनेक भाई-बहनों ने स्पष्ट रूप में मुझ से इसी तरह की ही अनेक बार चर्चाएँ की हैं । इन सब दुमुही साधनाओं के सम्बन्ध में हमारे महनीय मुनियों के पास कोपावेश के अतिरिक्त अन्य कोई सम्यक्-उत्तर है क्या, जो जिज्ञासुओं के सरल मन को सही समाधान दे सके ? समाधान दिया जा सकता है, यदि साधु-जन माया महाठगनी के जाल से मुक्त होकर वर्तमान देश-कालानुरूप अपनी सही स्थिति को साहस के साथ जनता के समक्ष प्रकट करने को तैयार हों ।
किन्तु, माया की कालिमा से आच्छादित आचार के पक्षधर भला साहस करें भी, तो कैसे करें? माया के परावरण से मुक्त होकर निरावरण होना अपने में बहुत ही कठिन बात है । दूर क्यों जाएँ, अभी कुछ समय पूर्व बहुत बड़ी धूमधाम के साथ सम्पन्न हुए एक साधु सम्मेलन की बात है । स्थानकवासी समाज की ही एक साम्प्रदायिक शाखा है 'वर्ध.स्था. जैन श्रमण संघ ।' उक्त श्रमण संघी सन्तों का पूना में एक सम्मेलन हुआ है । मुझे तो कुछ आशा नहीं थी, किन्तु कुछ श्रद्धालु जनों को बहुत लम्बेचौड़े आशा के स्वप्न दिखाई दे रहे थे, कि उक्त सम्मेलन में अपेक्षित, साथ ही विवादग्रस्त अनेक आवश्यक विषयों पर देशकालानुसार खुलकर चर्चा होगी । और, स्वच्छ एवं स्पष्ट निर्णय जनता के समक्ष आएँगे, किन्तु उल्लेखनीय जैसा खास कुछ हुआ नहीं । वही ढाक के तीन पात ।
- मैं यहाँ सम्मेलन में पारित अन्य प्रस्तावों की चर्चा एक किनारे छोड़ देता हूँ । किन्तु, महानगरों की सभ्यता में बहुश: चर्चित मल-मूत्र विसर्जन रूप परिष्ठापन समिति का जो प्रस्ताव है, उसी पर कुछ चर्चा कर लेना चाहता हूँ । प्रस्ताव नं. ११ का मूल पाठ है - "पंचमी समिति के विषय में साधु-साध्वीजी स्वविवेक से अधिकाधिक निर्दोष स्थिति का अनुकरण करें अशोभन अवज्ञा का रूप भी न हो, इस विषय में परस्पर निंदा-विकथा भी न करें ।"
पाठक देख सकते हैं कि उक्त प्रस्ताव किस तरह गोल-माल की भाषा में पारित किया गया है । इस पर स्पष्ट ही माया का, दम्भ का सघन आवरण है। इस प्रस्ताव का न कोई शब्दार्थ है और न पदार्थ, वाक्यार्थ एवं भावार्थ । उक्त प्रस्ताव में अन्तर्निहित गूढार्थ रहस्य को उद्घाटित करने के लिए
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