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हूँ, किन्तु अधिकांश में जो स्थिति है, उसकी ही यह चर्चा है | ' ऊँची दुकान, फीके पकवान " की स्थिति साधक के लिए ठीक नहीं है । आज जैन हो या अजैन, अनेक प्रबुद्ध मनीषी यह कहते सुने गए हैं, कि आज के अनेक मुनि-जन कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं । आज का साध्वाचार सर्वत: सुप्रकाशित सत्य से हटकर दम्भ के सघन अंधकार में सिमटता जा रहा है । आज साधुओं के आचार-पालन के हेतु श्रावकों को असत्य का सहारा लेना पड़ता है । और, प्राय: अजैन भी एतदर्थ परिहास की बातें करते हैं । उदाहरण के रूप में केवल एक घटित घटना की चर्चा कर देता हूँ । मुम्बई समाचार ( गुजराती दैनिक ) के 'जय जिनेन्द्र' शीर्षक के अन्तर्गत महनीय मुनि कस्तूरसागरजी ने ' साध्वाचारना प्रश्नों ।' शीर्षक से आज-कल के साध्वाचार सम्बन्धी मिथ्या-विचारों के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न उठाए हैं । उक्त लेख में एक घटना विशेष रूप से रेखांकित की गई है -
" एक बार कुछ मुनि सन्त विनोबाजी के पवनार आश्रम में पधारे । सामान्य नियम के अनुरूप वहाँ के कर्मचारियों ने उष्ण जल ( गर्म पानी ) तैयार किया । पानी लेने हेतु आए मुनिजी ने पूछा-पानी किसके लिए गर्म किया है ? निर्देश देने वाला कर्मचारी कार्यवश अन्यत्र चला गया था । अत: उस समय उपस्थित कर्मचारी ने सहज भाव से कह दिया- “ गर्म पानी आपके लिए तैयार किया है । " सन्त पानी लिए विना वापिस लौट गए । निर्देशक कर्मचारी लौट कर आया और जब उसे यह मालूम हुआ, तो दुबारा साधुजी को लौटा कर लाया और कहा कि इन लोगों को कुछ पता नहीं था, यह गर्म-पानी तो हमारे अपने स्नान आदि के लिए तैयार किया है | सन्त वही पानी ले गए। यह दृश्य वहाँ उपस्थित एक अन्य सज्जन देख रहे थे । उन्होंने वर्धा के जैन उपाश्रय में उन्हीं सन्तों से पूछा-"क्या जैन धर्म झूठ बोलने की प्रेरणा देता है ? पवनार के आश्रम में आपके मुनिजी द्वारा लिया गया उष्ण जल तो वही था, जिसे वे पहली बार बिना लिए वापस लौट गए । जल में तो किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ, सिर्फ भाषा में परिवर्तन हुआ था । सत्य भाषा का प्रयोग करनेसे पानी अकल्पनीय हो गया और असत्य भाषा का प्रयोग करने से वही पानी कल्पनीय कैसे हो गया ?"
जय जिनेन्द्र के उक्त घटना लेख के रूप ही सर्वोदय के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री राधाकृष्णजी बजाज ने प्रत्यक्ष में मुझसे भी इसकी चर्चा की थी,
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