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उपासना अर्थात् धर्म-साधना जन-सेवा है। वही व्यक्ति धन्य है, जो पीडितों की सेवा करता है -
"जे गिलाणपडियरइ से धन्ने।"
कर्म-योगी भगवान कृष्ण का गीता में उद्घोष है, कि जो दूसरे जरूरत मन्दों को न खिलाकर स्वयं ही सब-कुछ खा जाते हैं, वे व्यक्ति भोजन नहीं खाते, अपितु पाप ही खाते हैं -
“भुजते ते त्वधं पापा”
प्रस्तुत प्रसंग में भारतीय इतिहास के अनेक महत्त्वपूर्ण स्वर्णिम उदाहरण हैं, जो स्वार्थ का परित्याग कर परमार्थ रूप पदार्थ का अर्थात् परोपकार का समुद्घोष करते हैं।
भगवान महावीर के महान शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम १५०० के लगभग तापस-परम्परा के कण्ठगत प्राण भूखे साधकों को अपने योगबल से भोजन कराते हैं, जबकि शास्त्र में साधक के द्वारा चमत्कारों का प्रयोग एवं प्रदर्शन करना निषिद्ध है । इसका अर्थ है - अन्तत: करुणा ही सर्वोपरि धर्म है ।
प्राचीन गुर्जर प्रदेश के जावड़ शाह और पेथड शाह जैसे श्रीमंत जैन श्रावकों ने अपने धन तथा अन्न के विशाल भंडार मुक्त भाव से दुर्भिक्ष जनता के हितार्थ अर्पित कर दिए थे, और ऐश्वर्य के सुमेरु से नीचे उतर कर खुली धरती पर आ गए थे । फिर भी उनके इस पुण्य प्रयोग के अन्तर्मन के आनन्द की कोई सीमा न थी।
भारतीय इतिहास में राजा रंतिदेव देवात्मा पुरुष हैं । दुर्भिक्ष के समय क्षुधा से पीडित जिन्हें अनेक सप्ताहों के अनन्तर कुछ भोजन मिलता है और वे उस भोजन को दया भाव से चाण्डाल जैसे अन्य बुभुक्षितों को सहर्ष अर्पण कर देते हैं उस समय का उनका यह अमृत स्वरूप अन्न दान आज भी जीवन्त है । उन्होंने तब सहर्ष कहा था ।
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