Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 236
________________ अन्ततः मुक्ति की समुपलब्धि होती है । मुक्ति अर्थात् विकारों से मुक्त स्व-स्वभाव सिद्ध शुद्ध स्वरूप में सदा-सर्वदा के लिए स्थिति । वाणी के अनुरूप ही पारस्परिक व्यवहार की भी उपयोगिता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । अत: यथोचित पारस्परिक मानवीय व्यवहार से ही उसकी सामाजिकता का सही मूल्यांकन होता है | और यही सामाजिकता है जो समाज में उसे अच्छा-बुरा प्रमाणित करती है । परस्पर का व्यवहार लोक जीवन में ही नहीं, साधना के आध्यात्मिक-जगत् में भी अपनी महत्ता प्रतिष्ठित रखता है | इसीलिए भगवान महावीर ने दोनों को ही उच्चतर एवं पवित्रतम रखने की प्रेरणा दी है । यही हेतु है कि उत्तराध्ययन सूत्र का प्रथम अध्ययन विनय अध्ययन है। प्रस्तुत अध्ययन में अपने से महत्तरों के प्रति क्षुल्लक साधक का जीवन व्यवहार कैसा होना चाहिए, यह स्पष्टत: प्रतिपादित है । ऊपर से लगता है कि बातें काफी साधारण हैं, किन्तु अन्तरंग में पैठिएगा, तो पता लगेगा कि यह कितने महान असाधारण सिद्धान्त हैं जीवन की उच्चता के निर्माण के लिए | मानव ही एक ऐसा व्यक्ति है, जिसको भावाभिव्यक्ति के लिए स्पष्ट भाषा मिली है । एक-दूसरे को समझने-समझाने के लिए भाषा का सेतु महत्त्वपूर्ण है । किन्तु, अज्ञान-ग्रस्त व्यक्ति इस महत्त्वपूर्ण वाचा-शक्ति का दुरुपयोग करता है और परस्पर विग्रह, कलह, घृणा, द्वेष तथा तत्पश्चात् हिंसा आदि का अनर्गल अमानवीय वातावरण प्रसारित करके अपने स्वर्गोपम सामाजिक-जीवन को नरक बना देता है । अत: भगवान महावीर का शिक्षण है कि अपनी वाणी पर सजगता के साथ नियंत्रण रखो बहुयं मा य आलवे | उत्तरा. १, १० -बहुत अधिक नहीं बोलना चाहिए । कडं कडे त्ति भासेज्जा, अकडं नो कडे त्ति य -उत्तरा. १,११ - जो काम किया हो, तो उसे स्वीकार करते हुए किया कहना चाहिए और न किया हो, नहीं किया, कहना चाहिए । अर्थात् मायाचार से मुक्त रहना चाहिए । मा गलियस्से व कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो | –उत्तरा. १,१२ (४८७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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