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लेख लम्बा हो रहा है । विचारों का प्रवाह इति पर पहुंच नहीं पा रहा है । फिर भी, बलात् मन को समेट कर संक्षेप में इतना ही कहना चाहूँगाधर्म के नाम पर होने वाला यह हिंसा का ताण्डव-नृत्य तत्काल बन्द हो जाना चाहिए । मानव, मानव में मानवता का एक ऐसा खून का रिश्ता है, जिसके टूटने पर मानवजाति विनाश के कगार पर पहुंच सकती है । दया, प्रेम, करुणा मैत्री एवं सद्भावना आदि के रूप में प्रख्यापित धर्म को प्रतिष्ठित होने के लिए उसे अपना सही आसन मिलना चाहिए ।
इसी धर्म के लिए महाश्रमण भगवान महावीर ने कहा- विश्व में धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल है- 'धम्मो मंगलमुक्किनें'
यही वह धर्म है, जो इन्सान को इन्सान बनाए रख सकता है । उक्त धर्म के अभाव में मनुष्य, मनुष्य नहीं, पशु बन जाता है । चिर-अतीत में हमारे पूर्वजों ने सही कहा था
“ धर्मेने हीना पशुभिः समाना"
और, मैं आज की दुस्थिति को देखकर कहता हूँ - धर्म से शून्य होकर मात्र बाह्य क्रिया-काण्ड रूप सम्प्रदायों को, मतों को, पंथों को ही धर्म मानने वाले मनुष्य पशु से भी बदतर हैं । वे मानव नहीं, दानव हैं । भगवान बचाए मानव-जाति को इन दानवों से ।
___ आज अपेक्षा है, प्रत्येक नगर एवं गाँव में सभी धर्मों के, परम्पराओं के प्रबुद्ध महानुभावों एवं शिक्षित महिलाओं के एक पक्ष-मुक्त शुद्ध संगठन हो और वह समय-समय पर जनता को धर्म के मूल तत्वों का रहस्य समझाए । बाह्य दृष्टि से हटाकर जनता को अन्तर्-दृष्टि दें । धर्म आत्मा का स्वरूप है, तथाकथित बाह्याचार एवं क्रिया-काण्डों का नहीं । यह प्रयत्न निष्ठा के साथ निरन्तर अपेक्षित है । क्या इस ओर कुछ लक्ष्य दिया जाएगा ?
जुलाई १९८७
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