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अतिवाद : अध्यात्म - साधना का विष
मोक्ष मार्ग में प्रयुक्त मार्ग का अर्थ है कारण एवं साधन । मोक्ष तो कार्य है और उसके कारण हैं - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र | जो साधन है, वस्तुतः वही साध्य भी है, अन्तर इतना ही है कि अपूर्ण अवस्था में वे साधन हैं और पूर्ण अवस्था में वे ही साध्य बन जाते हैं । साध्य और साधन में अद्वैत दृष्टि से किसी प्रकार का मौलिक भेद नहीं होता है । मैं आपसे यह कह रहा था कि जब तक आत्म- गुणों का पूर्ण विकास नहीं होता है, तब तक वे साधन हैं और जब पूर्ण विकास हो जाता है तो वे ही गुण साध्य बन जाते हैं । दूसरी बात यह है कि गुण कभी अपने गुणी से भिन्न नहीं होता । इसका अर्थ यह हुआ कि जो दर्शन है, वही आत्मा है, जो ज्ञान है, वही आत्मा है और जो चारित्र है, वही आत्मा है, आत्मा, उसका साध्य और उसके साधन में अद्वैत दृष्टि है, किन्तु व्यवहार में हम भेद-दृष्टि को आधार बनाकर ही चलते हैं । जब साधक निश्चय दृष्टि में पहुंचता है, तब वहाँ पर उसे किसी प्रकार का भेद दृष्टिगोचर नहीं होता है ।
मुक्ति क्या वस्तु है ? मुक्ति का अर्थ है - बन्धनों से छुटकारा । जितने बन्धन हैं, उतना ही अधिक संसार होता है और जैसे-जैसे बन्धनों का अभाव होता जाता है, वैसे-वैसे मुक्ति प्राप्त होती जाती है । बन्धनों का अभाव ही मोक्ष है । सम्यक् - दर्शन के होने से मिथ्यात्व का बन्धन टूट जाता है । सम्यक् ज्ञान के आते ही अज्ञान का बन्धन टूट जाता है । सम्यक् चारित्र के होते ही राग-द्वेष के बन्धन टूटने लगते हैं । साधक - जैसे-जैसे अपनी साधना में विकास करता है, वह बन्धनों से मुक्त होता जाता है ।
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कल्पना कीजिए, एक बच्चा पढ़ने जाता है और वह पहली कक्षा पार करता है, फिर धीरे-धीरे वह दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं आदि कक्षाओं
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