Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 188
________________ अगस्त्य ऋषि के जीवन की घटना जो कुछ पुराणों में उपलब्ध होती है, उसमें अलंकार हो सकता है, परन्तु मैं आपसे अध्यात्म साधना के क्षेत्र की बात कह रहा हूँ । अध्यात्मसाधना के क्षेत्र में कुछ साधक इस प्रकार के हो जाते हैं, जो एक मुहूर्त में पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं । मैं साधना के क्षेत्र में इस प्रकार के साधकों को आध्यात्मिक अगस्त्य ऋषि कहता हूँ । साधना के क्षेत्र में जो अगस्त्य ऋषि बनकर के आते हैं, वे अपने जीवन का कल्याण इतनी शीघ्रता के साथ कर लेते हैं, कि आपको और हमको उनकी जीवन-गाथा पढ़कर बड़ा आश्चर्य होता है। हर कोई व्यक्ति इस प्रकार प्रारम्भ में ही अगस्त्य ऋषि नहीं बन सकता, फिर भी मैं कहूँगा कि आत्मा में अनन्त शक्ति है ही और एक न एक दिन साधक को अगस्त्य ऋषि बनना ही होता है । अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा क्या नहीं कर सकता? वह सब कुछ कर सकता है परन्तु कब कर सकता है, जब कि वह अपनी अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति कर ले । शक्ति होते हुए भी यदि उसकी अभिव्यक्ति नहीं हुई है, तो कुछ नहीं हो सकता | अणु को विराट बनाने से ही उस अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति होती है । जिस साधक ने अपनी आत्म शक्ति का जितना विकास कर लिया है, वह उतना ही अधिक अपने विकास मार्ग पर बढ़ सकता है । कुछ साधक हैं, जो चलते तो बहुत हैं, किन्तु फिर भी कुछ प्रगति नहीं कर पाते । तेली के बैल की भाँति वे एक ही स्थान पर घूमते रहते हैं और दुर्भाग्य से उसे ही अपनी यात्रा समझ लेते हैं । आपने तेली के बैल को देखा होगा। प्रभात वेला में जब तेली अपने बैल को घानी में जोतता है, तब वह उसकी दोनों आँखों पर पट्टी बाँध देता है । तेली का वह बैल दिन भर घूमता है और दिन भर चलता रहता है, परन्तु कहावत है कि--"ज्यों तेली के बैल को घर ही कोस पचास ।” तेली का बैल दिन भर चलता-चलता थक जाता है, परिश्रान्त हो जाता है | वह अपने मन में सोचता है, कि आज मैं बहुत चला हूँ, चलता-चलता थक गया हूँ, कम से कम चालीस-पचास कोस की यात्रा तो मैंने कर ही ली होगी । सायंकाल के समय जब तेली उसकी आँख पर से पट्टी हटाता है, तब वह देखता है कि मैं तो वहीं पर खड़ा हूँ, जहाँ से मैंने यात्रा प्रारम्भ की थी । दिन भर चला, फिर भी वहीं-का-वहीं पर हूँ । साधना के क्षेत्र में भी बहुत से साधकों की यही जीवन दशा रहती है । साधना करते-करते उन्हें पचास-साठ वर्ष हो जाते हैं, फिर भी वे किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर पाते । साधक जीवन की यह एक विकट विडम्बना है । पंचास-साठ वर्ष तक सिर (४३९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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