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अनुपम प्रदीप हैं । इसी सन्दर्भ में हमें भक्तराज आचार्य मानतुंग के वे स्तुति शब्द याद आते हैं, जिन्हें हम आज भी प्रतिदिन स्मरण करते हैं -
निधूमवर्तिरपवर्जित - तैलपूरः, कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिता चलानां, दीपोऽपरस्त्वमसिनाथ! जगत्प्रकाशः ।।
उक्त स्तुति श्लोक का भावार्थ पाठक समझ गए होंगे । संक्षेप में भावार्थ है-'भगवान वह जगत् प्रकाश दीपक हैं, जो धूम से रहित है । बाह्य निमित्त रूप किसी बाती और तैल से भी मुक्त है । यह दीपक संपूर्ण विश्व रूप त्रिलोक को एक साथ प्रकाशित करता है । प्रलय काल के वात्याचक्रों से भी वह प्रकम्पित नहीं होता। जबकि प्रलयकाल के वात्याचक्र अचल कहे जानेवाले पर्वतों को भी विचलित कर देते हैं, एक प्रकार-से ध्वस्त ही कर देते हैं। अत: भगवान विश्व के सर्वथा, सर्वोत्कृष्ट, अनुपम, अद्वितीय दीप हैं ।
बाह्य विभूति देवाधिदेव तीर्थंकर की सर्वोपरि होती है, किंतु इस विभूति में वे जल में कमलवत निर्लिप्त हैं । संसार के अनेक महानुभाव तुच्छ एवं नगण्य-सी विभूति में ही हर्षोन्मत्त हो गए हैं और, अपने अहंकार का धुआँ छोड-छोड़कर दूसरों को धूमायित कर गए हैं । अन्य प्राणियों को इतनी रोम-प्रकम्प पीड़ाएँ दी हैं कि आज उनकी ऐतिहासिक गाथाएँ भी कोई सहृदय पढ़ता है, सुनता है, तो उसकी आँखों से अश्रु-धारा बह निकलती है। परन्तु, महावीर हैं कि इतनी विभूति में भी वे निर्धूम हैं, असंग हैं । उन्हें न कोई आसक्ति है, और न उससे उत्पन्न होने वाली कोई अन्य विकृति । यह एक विचित्र-सी बात लगती है । साधारणतया लगता है,यह अरगत है । ऐसा कैसे हो सकता है? किन्तु, महावीर हैं कि उनमें बाह्य और उन्तरंग विभूतियों में पूर्ण संगति लीलायित होती है । आचार्य पात्रकेशरी ने इस असंगति में भी संगति का उल्लेख किया है । प्रभु की असंग स्थिति का दिव्य चित्रण है यह | वे कहते हैं -
"सुरेन्द्र परिकल्पितं बृहदनर्घ सिंहासनं, तथा तपनिवारणत्रय मत्थोल्लसच्चामरम् । वसनं च भुवनत्रयं निरुपमा च नि:संता, न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथापि संगच्छते ।।"
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