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एक बात और है, श्रमण भगवान महावीर की दिव्य-वाणी के ज्योतिर्मय दीप अब भी प्रज्वलित हैं । और, वे मानव - जाति को अन्धकार में प्रकाश देते हैं । महापुरुषों की उपस्थिति स्थूल भौतिक शरीर के रूप में हो, यह अपने में महत्त्वपूर्ण तो है, किन्तु इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना उसे महन्त्व दिया जाता है | महावीर अपने उपदेशों के रूप में जो ज्ञानोपदेश दे गए हैं, वह श्रुतज्ञान-रूप में अब भी अमुक अंश में हमारे समक्ष है । उक्त श्रुतज्ञान भगवान् का ज्ञान-शरीर है । उसमें वे स्वयं जगत्प्रकाश दीप के रूप में दीपायित हैं । महापुरुष जन-कल्याण के हेतु से अन्यत्र कहीं नहीं होते, वे अपनी जन-कल्याणी वाणी में होते हैं । वे जब स्थूल शरीर से विद्यमान थे, तब भी उनकी दिव्य-वाणी ही अज्ञान अंधकार को छिन्न-भिन्न कर, जनता के अन्तर्-हृदय को प्रकाशमान करती थी । अब भी वह वाणी है । भले ही वह पूर्ण रूप में न हो, किन्तु जो भी है, उसमें से ज्ञान के प्रकाश की किरणें प्रसारित हो रही हैं । इस दृष्टि से भगवान के दर्शन हम आज भी उनकी निर्धूम वाणी में कर सकते हैं। उनकी वाणी के आसपास भूगोल-खगोल एवं क्रिया-काण्ड आदि की एकान्त मान्यताओं के रूप में जो धुआँ है, वह उनका अपना धुआँ नहीं है, वह बाद में आ घिरा है । अनेकान्त दृष्टि को भूल जाने के कारण ही यह धुआँ है । किन्तु, जिनके पास अनेकान्त दृष्टि है, वे अब भी भगवान महावीर का दिव्य-दर्शन कर सकते हैं ।
प्रस्तुत प्रसंग में मैं गीता महात्म्य का एक श्लोक उद्धृत कर देना चाहता हूँ, जो आनन्द-कन्द बृजनन्द श्रीकृष्ण के मुख से ध्वनित हुआ या यों कहिए ध्वनित कहा जाता है । श्लोक है -
" गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि, गीता मे चोत्तमं गृहम् । गीताज्ञानमुपाश्रित्य श्रील्लोकान्पालयाम्यहम् "।। ७
भावार्थ है - मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ । गीता मेरा घर है। गीता ज्ञान को उपाश्रित करके मैं मीन लोक का पालन करता हूँ ।
श्रमण भगवान महावीर अपने श्रुतज्ञान के रूप में विराजमान हैं और यह विश्व दीप अपने इस घर में से विश्व को प्रकाशमान कर रहा है । आओ, हम सब साम्प्रदायिक भेद-भावों को परित्याग कर एक जुट हो कर भगवत्-वाणी का प्रचार करें और उसमें ज्ञान-शरीर रूप से विराजमान भगवान महावीर के दिव्यरूप का जन-जन को दर्शन कराएँ ।
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