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१४. मध्यस्थ : आचार्य को पक्ष-पात मुक्त रहने के लिए मध्यस्थ भाव की अतीव आवश्यकता है । पक्ष-पात में किसी के प्रति राग होगा और किसी के प्रति द्वेष । फलत: शिष्यों में विद्रोह की भावना पैदा हो सकती है । समभावी आचार्य ही संघ में सभी के लिए समान रूप से पूज्य होता है। वस्तुत: यह समत्व-भाव ही जीवन का महत्त्वपूर्ण योग है । जिसने इसे साध लिया, बस उसने एक प्रकार से सब-कुछ साध लिया है-“समत्वं योग उच्यते ।"
१५. देशज्ञ: आचार्य को देश विशेष के आचार-व्यवहार का ज्ञाता होना चाहिए । एक ही भाव से सर्वत्र आँख बन्द कर चलना और रहना उचित नहीं है। बनवासी जीवन-चर्या, ग्रामों में नहीं चल सकती और ग्रामों की चर्या, नगरों एवं महानगरों में समादृत नहीं हो सकती । आज के युग में मल-मूत्र आदि की परिस्थापन से सम्बन्धित चर्या जो आलोचना का पात्र हो रही है, उसके मूल में देशज्ञता का ही अभाव है । नागरिक सभ्यता प्रधान क्षेत्रों में सड़कों पर यों ही चोरी-छिपे इधर-उधर मल-मूत्र विसर्जन की क्रिया एक ओर हास्यास्पद है, दूसरी ओर राजकीय प्रशासन विरुद्ध है तथा तीसरी ओर जिन-शासन की अवहेलना का कारण है ।
१६. कालज्ञ : सुदक्ष आचार्य को परिवर्तित समय का ध्यान रखना आवश्यक है । इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में काल प्रतिलेखना के महत्त्व का वर्णन है । समयोचित जीवन-व्यवस्था के अभाव में संघ छिन्न-भिन्न होने की स्थिति में पहुँच जाता है । शीत ऋतु में ग्रीष्म का और ग्रीष्म ऋतु में वसन्त एवं वर्षा का राग अलापना अनुचित नहीं, तो क्या है ? खेद है, आज के संघ नेता भगवान महावीर के 'काले कालं समायरे जैसे उदात्त एवं उपयोगी काल-सूत्र की उपेक्षा करके जिन-शासन की महत्ता को क्षति पहुँचा रहे हैं ।
१७. भावज्ञः भावज्ञ शासक ही अपने अनुगामी जनों की भावना एवं परिस्थिति विशेष को यथोचित रूप से समझ सकता है | कौन साधक,किस भूमिकापर है, उसकी बौद्धिक एवं कार्य-शक्ति कितनी है-यह न जान कर, सबको एक ही डंडे से हांकना कथमपि उचित नहीं है । इसीलिए शास्त्रों में वृद्ध, बाल और रोगी आदि के सम्बन्ध में अपवाद स्वरूप विशेष सूचनाएँ दी गई हैं । प्रायश्चित्त के क्षेत्र में भी इसी दृष्टि से एक अपराध में भी न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देने का मौलिक विधान है ।
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