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आचार्य कौन ?
खण्ड २
आचार्य का पद साधना-क्षेत्र में एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण पद है । यह अणिमा-लघिमा की तुच्छ सीमाओं से परे अद्भुत महिमा एवं गरिमा का सर्वोपरि पद है । अतएव अनेकत्र लिखा मिलता है-" तित्थयर समोसूरी" अर्थात् तीर्थंकर के समान शासन की महत्ता का आचार्य भी एक गौरवशाली प्रतीक है | शासन का नेतृत्व कोई यों ही ऐरा-गेरा व्यक्ति नहीं कर सकता । जिसका व्यक्तित्व एवं कृतित्व दीप्तिमान होता है, वही आचार्य पद का प्रामाणिक पात्र होता है । अरहंतो भगवंत...." नामक मंगल श्लोक में इसी दृष्टि से आचार्यों को स्मरण करते हुए उन्हें “आचार्या जिनशासनोन्नतिकरा:” कहा है ।
आचार्य को मातृ-हृदय के समान कोमल, साथ ही पितृ हृदय के समान कठोर होना चाहिए । यह कोमलता और कठोरता का सममिश्रित व्यक्तित्व ही स्नेहसिक्त अनुशासन संघ में सहज ही ग्राह्य एवं आदरास्पद होता है। इसी सम्बन्ध में आवश्यक चूर्णिकार ने लिखा है-" चन्दमिव सोम्मं, सूरमिव दित्ततेयं " अर्थात् आचार्य को सूर्य के समान दीप्त तेजवाला और चन्द्रमा के समान सौम्य, शान्त एवं शीतल होना चाहिए ।
आचार्य कल्याण एवं मंगल स्वरूप होता है । अतएव कल्याण एवं मंगल की इच्छा से जिसकी उपासना की जाती है, वही आचार्य शब्द वाच्य है । अत: आचार्य शब्द की निरूक्ति यही है" आचर्यते-सेव्यते कल्याणकामैरित्याचार्य : "
-प्रवचनसारोद्धार टीका २४
आचार्य का लक्षण करते हुए आवश्यक नियुक्ति में लिखा है- जो सम्यक्-आचार का स्वयं आचरण करके उसे प्रभाषित करते हैं, अन्य शिष्यों से यथायोग्य पद्धति से आचरण कराते हैं एवं उत्सर्गअपवाद से सम्बन्धित विधि-निषेधों की समुचित परूपणा करते हैं वे आचार्य हैं
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