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को ज्ञान का समुचित प्रकाश कैसे दे सकेगा ? इस स्थिति में तो अज्ञानी आचार्य पर सूत्रकृतांग सूत्र का यह कथन चरितार्थ होता है- " अंधो अंध पहंणितो, दूरमद्धाणुगच्छइ १.१.२.१९ अर्थात् अंधा अंधों का पथ-प्रदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भटक जाता है ।
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२१. दर्शनाचार युत: आचार्य के लिए दर्शन - विशुद्धि अति आवश्यक
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है। दर्शन धर्म - कल्पवृक्ष का मूल है- दंसण मूल धम्मो | यदि आचार्य स्वयं तत्त्व-निष्ठा के प्रति सजग नहीं है, स्वयं यथार्थ तत्त्व रुचि के प्रति डांवाडोल है, तो वह साधकों को कैसे तत्त्व - निष्ठावान बनाएगा ? कैसे यथार्थ सत्य के प्रति उनमें समर्पित भावना उत्पन्न कर सकेगा ? साधना के लिए शंका, कांक्षा आदि दोषों से विमुक्ति आवश्यक है और यह सब होता है - दर्शन - विशुद्धि के आलोक में ।
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२२. चारित्राचार : मोह और क्षोभ अर्थात् राग-द्वेष से मुक्त होना चारित्र है । बाह्य चारित्र शरीर है और यह पूर्व परिभाषित चारित्र अन्तरात्मा है । आत्मा के अभाव में शरीर का क्या अस्तित्व रहता है और उसकी क्या परिणति होती है - यह सब कोई जानते हैं । चारित्र का उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार अर्थ है" चयरित करं चारितं । - २८, ३३ । जो आत्मा पर जमे हुए कर्म मल के समूह को रिक्त अर्थात् दूर करता है, वह चारित्र है | चारित्र ही साधक को नए कर्म-बन्धन के हेतु आश्रव से मुक्त कर संवर-भाव में भी स्थिर करता है । इस सम्बन्ध में उत्तराध्ययन सूत्र का ही अमृत-वचन है
चरितेन निगिण्हाइ ।
२८, ३५
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अस्तु विशुद्ध आचारवान आचार्य ही साधकों को विशुद्ध चारित्र-निष्ठ होने के लिए प्रेरणा का अखण्ड स्रोत होता है । स्वयं विशुद्धाचारी आचार्य को देखकर शिष्य बिना किसी दबाव के सहज ही चारित्र - पथ पर अग्रसर होने लगते हैं ।
निर्जरा का हेतु है । आचार्य
२३. तपाचार-युत : तप, संवर एवं उमास्वाति का सूत्र साक्षी है इस सम्बन्ध में तपसा निर्जरा च "–९, ३ । तप के दो भेद हैं- बहिरंग और अन्तरंग | अनशन आदि छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य आदि छह अन्तरंग तप हैं । अन्तरंग तप मुक्ति
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