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हमारा भारत, एक महान राष्ट्र है । इसकी गरिमा एवं महिमा सीमा से परे रही है । भारत की महिमा के स्वर साधारण जनता के मुख से मुखरित नहीं हुए हैं । अपितु आध्यात्मिक चेतना के भगवत् स्वरूप महर्षियों के मुख से भी ध्वनित हुए हैं । महर्षि व्यास विष्णु पुराण में उद्घोषणा कर रहे हैं, कि स्वर्ग के देव भी भारत की पवित्र भूमि में रहने वाले मानव को धन्य कहते हैं
“गायन्तिदेवाः किल् गीतकानि, धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे ।
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तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर आध्यात्मिक अनन्त चेतना के विराट
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पुरुष हैं । उन्होंने भी ग्राम धर्म नगर-धर्म आदि धर्मों की चर्चा करते हुए, राष्ट्र-धर्म की भी चर्चा की है । अपने अनेक प्रवचनों में भारतीय गरिमा का उदात्त वर्णन किया है । भारत को कर्म और धर्म दोनों का केन्द्र बताया है और यहाँ से मानव अपनी आन्तरिक चेतना का अनन्त विकास करके आत्मा से परमात्मा भी हो सकता है । ये गौरव भारत भूमि को ही दिया है । इसके लिए स्थानांग एवं भगवती आदि अनेक आगम अवलोकित किए जा सकते हैं । मैं विचार करता हूँ और साथ ही आश्चर्यान्वित होता हूँ कि भारत दीर्घाति - दीर्घ काल से कितना अधिक महिमान्वित होता आ रहा है ।
भारत भौगोलिक दृष्टि से प्रकृति का विराट रूप है । एक ओर देवतात्मा हिमालय जैसे गगनचुम्बी सहस्राधिक पर्वत हैं, तो दूसरी ओर हजारों ही गंगा, सिन्धु, यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि पुण्य सलिला मातृ देवी स्वरूपा पवित्र नदियाँ भारत भूमि पर प्रवाहित हैं । भारत के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण में महासागर अहर्निश हरक्षण गर्जन करता रहता है । विभिन्न ऋतुओं का कालक्रम से ही नहीं, एक साथ ही यहाँ दिव्य संगम देखा जा सकता है । ऐसा अद्भुत संगम एक साथ अन्यत्र प्राय: दुर्लभ ही है । प्राकृतिक छटा इतनी अधिक मनोहारिणी है, कि स्वर्ग के देव भी आकाश-यात्रा करते हुए इस पुण्य भूमि पर अवतरित होने की इच्छा का संवरण नहीं कर सकते । सुप्रसिद्ध जैन आगम
भगवती सूत्र उक्त दिव्य वार्ता का आज भी साक्षी है ।
भारत की मानव-जाति एक विराट जाति है । इसमें विभिन्न रंगों एवं रूपों के मानव समूह समाहित हैं । विभिन्न वर्ण एवं वंशपम्पराएँ हैं जिनके भवन, वसन, भोजन आदि के विभिन्न रीतिरिवाजों की विचित्र शैलियाँ हैं । धर्म
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