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को भी ध्यान में रख लें और फिर चल पड़ें, मत्त गंधहस्ती के समान अपने अभीष्ट पथ पर । बहुत अधिक काल तक विघ्न-बाधाओं की उधेड़ बुन में पड़े रहना, अपनी कर्म-शक्ति को, साहस को, उत्साह को क्षीण करना है । वस्तुत: ऐश्वर्य का निवास साहस में है-भले ही वह भौतिक हो या आध्यात्मिक । एक मनीषी का कथन है--“साहसे वसते लक्ष्मी"--अत: भय मुक्त मन ही उज्ज्वल भविष्य के निर्धारित पथ को प्रशस्त करता है |
आज राष्ट्र में सब ओर अनेक तरह के द्वन्द्व चल रहे हैं । कहीं जाति के नाम पर, कहीं क्षेत्रवाद के नाम पर, कहीं भाषा के नाम पर, कहीं राष्ट्र विघातक अलगाव के नाम पर और कहीं धर्म के नाम पर । बेतुके संघर्षों का ऐसा सिलसिला चल पड़ा है, कि मानव, मानव न रहकर पशु से भी बदतर निम्न स्तरीय दानव का रूप लेता जा रहा हैं । आपको अपने व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं का ही हल नहीं करना है, अपितु समाज एवं राष्ट्र की समस्याओं का भी आगे बढ़कर समाधान तलाशना है । एक क्षण के लिए भी ऐसा मत सोचिए की मुझे क्या पड़ा है, परिवार, समाज एवं राष्ट्र से? मुझे तो अपने काम-से काम है । राष्ट्र जाए भाड़ में । यह चिन्तन, जघन्य अपराध है । तुम अपने समाज
और राष्ट्र के अभिन्न अंग हो । तुम्हारा दायित्व है, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सर्व प्रथम समाज और राष्ट्र की रक्षा का प्रयत्न करना | समाज और राष्ट्र की रक्षा में ही तुम्हारे अपने अस्तित्व की सुरक्षा है । बूंद के अस्तित्व की रक्षा अपने जलाशय में ही है । जलाशय से अलग होने में नहीं है । बूंद अपने जलाशय से अलग हुई नहीं कि मिट्टी में मिलकर समाप्त । सावधान रहिए, आप जलाशय से अलग होने वाली बूँद की स्थिति में अपने को न ले जाएँ । मानव का सुख और आनन्द उसकी मनोभूमिका के भूमा और विराट होने में ही है, क्षुद्र होने में नहीं ।
यह ज्योतिर्मय अमृत उद्घोष है, हमारे महान पूर्वजों का । यदि यथार्थ में सुख-शान्ति और आनन्द पाना है, तो अपने मन को विराट बनाइए । अपने चिन्तन और तदनुरूप कर्म को अधिकाधिक जन-मंगल के लिए विस्तृत बनाते रहिए । जितना आपका बौद्धिक एवं कर्म जीवन जन-मंगल की दिशा में विराट होगा, उतना ही आप में ईश्वरीय ज्योतिर्मय प्रकाश जगमगाएगा । ईश्वरत्व का अर्थ ही है विराट होना । हमारी दार्शनिक भाषा में-जो विभु है, सर्व व्यापक है
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