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है | जिनके मन के-प्राणों की ऊर्जा शक्ति क्षीण हो चुकी है । ऐसे लोग शरीर से जीवित परिलक्षित होते हुए भी, अन्तर्-आत्मा से मृत ही हैं और आप जानते ही हैं कि मृत का स्थान कहाँ होता है? यह तो आपको ज्ञात ही है, वह मैं नहीं बताऊँगा | मैं मान लेता हूँ, कि आप मृत नहीं जीवित हैं । जीवित व्यक्ति अपने भाग्य की नई रेखाओं के निर्माण के लिए कर्म-पथ पर साहस के साथ आगे बढ़ता जाता है | वह पुरुष-सिंह होता है | वह विघ्न-बाधाओं को तोड़ता हुआ, चूर-चूर करता हुआ, निरन्तर एक मंजिल-से-दूसरी मंजिल की ओर बढ़ता चलता रहता है और अन्तत: अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है-“पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी ।" उसकी ज्योतिर्मय चेतना में असम्भव जैसा, कुछ भी तमस् नहीं रहता । तमस् पुरुषार्थ हीन, खिन्न मनवाले व्यक्ति के जीवन में ही होता है ।
आलस्य कहाँ करना है ? अच्छे भविष्य के निर्माण के हेतु अच्छे कर्म में नहीं, प्रत्युत आलस्य का उपयोग दुष्कर्म की स्थिति में ही करना चाहिए । अच्छे कर्म के लिए जब उसके करने का संकलन जगे, तभी उसे रूपायित कर लेना है। याद रखिए, अच्छे कर्म के लिए आज नहीं, कल-इतना सोचना भी पाप है | यह एक ऐसा पाप है, जो अपने ही हाथों अपने जीवन को ध्वस्त कर देना है । प्रस्तुत प्रसंग में एक महान अनुभवी मनीषी के एक छोटे-से दोहे की अर्घाली है, जिसे अपने मन और मस्तिष्क में सतत ज्योतिर्मय रखना है
"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब"
विघ्न-बाधाओं की आशंका से हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहना उपयुक्त नहीं है । अनेक विघ्न-बाधाएँ तो कल्पित ही होती हैं, यथार्थ में उनकी कोई स्थिति ही नहीं होती । इस तरह के भविष्य सम्बन्धी विघ्न-बाधाओं के भय के अंधेरे में दिखने वाले भूत, जो होते हैं, वे इधर-उधर चुपचाप खड़े हुए ढूंठ वृक्ष होते हैं, परन्तु भयाकुल व्यक्ति को लगते हैं वे संहार करने वाले भूत-प्रेत । अस्तु कर्म-क्षेत्र में उतरते समय अन्तर्मन को विघ्न-बाधाओं के भय से आच्छन्न रखना ठीक नहीं है । विघ्न-बाधाओं का अधिक चिन्तन मनुष्य के साहस-शक्ति को वैसे ही आच्छन्न कर देता है, जैसे काले बादल ज्योतिर्मय सूर्य को । मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि आप अपने कर्म-पथ में आने वाले विघ्नों तथा अवरोधक तत्वों के सम्बन्ध में कुछ सोचें ही नहीं, यों ही आँख बन्धकर चल पड़ें। विघ्न-बाधाओं पर एक नजर अवश्य डाल लें या उनके निराकरण की प्रक्रिया
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